बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

भारत में स्वास्थ्य की गंभीर चुनौतियां

संपादकीय
भारत में स्वास्थ्य की गंभीर चुनौतियां

देश में स्वस्थ्य सेवाओं को लेकर कई बार सवाल उठाए जाते हैं। देश में आम नागरिकों को पर्याप्त रूप से बुनियादी स्वस्थ्य सेवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। सुविधाओं के अभाव में बड़ी संख्या में गरीब लोगों को महंगी स्वास्थ्य सेवाएं लेने पर विवश होना पड़ता है। जो ऐसा नहीं कर पाते, उन्हें इलाज के अभाव में अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। यूं तो एलोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियाँ विद्यमान हैं लेकिन जल्दी स्वास्थ्य लाभ के लिए अधिकांश लोग एलोपैथी को ही अपनाते हैं,जो अन्य के मुक़ाबले आसानी से उपलब्ध भी है।सबके लिए स्वास्थ्य अभी भी एक नारा ही बना हुआ है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने प्रतीची (इंडिया) ट्रस्ट की ग्यारहवीं कोलकाता समूह कार्यशाला में प्रेस को संबोधित करते हुए सेन ने कहा था किस्वास्थ्य सेवा की स्थिति बेहद निराशाजनक है। हम निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इन्हें सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की जगह नहीं लेनी चाहिए।सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता और निजी स्वास्थ्य सेवा पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता से कम जानकारी रखने वाले रोगियों और उनके परिवारों का उत्पीड़न होगा। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भारत को बांग्लादेश, थाईलैंड और चीन जैसे देशों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।` आठ साल पहले तक सोचैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर के प्राथमिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्रों और सामुदायिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्रों में चिकित्‍सा विशेषज्ञों के आधे से भी अधिक पद रिक्‍त थे। वर्ष 2007-08 तक सामुदायिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्रों की संख्‍या 5000 हो जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका
हाल ही प्रदेश में स्वाइन फ्लू का प्रकोप फैला तो सारी सुविधाएं जुटाने के दावे किए गए,प्रशासन ने मॉनिटरिंग का काम भी किया, लेकिन 100 से अधिक लोगों की जानें चली गईं और डाक्टर यही इंतजार कर रहे हैं  कि कब सर्दी का प्रकोप कम हो और स्वाइन फ्लू से छुटकारा मिले।स्कूलों में सामूहिक प्रार्थना सभाएं निरस्त कर दी गयी। जयपुर जैसे महानगर में तो लोग निजी बड़े अस्पतालों का लाभ भी उठा लेते हैं,लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और गावों की ओर देखने वाला कोई नहीं है।
एलोपैथी के बाद लोग आयुर्वेद का सहारा लेते हैं लेकिन वहां भी सुविधाओं का घोर अभाव है। यहां तक कि वहां पानी-बिजली तक की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं है।इन अस्पतालों में बजट के अभाव का रोना रोया जाता है, क्योंकि सर्वाधिक बजट एलोपैथी अस्पताल खींच लेते हैं।  अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों में पर्याप्त विकित्सक और पेरा-मेडिकल स्टाफ ही नहीं है तो मरीज़ कहां गुहार करें?
बढ़ती जनसंख्या, गरीबी और कमजोर बुनियादी ढांचे के कारण भारत के सामने दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य सेवा की चुनौती बनी हुई है।यह स्वीकार करना होगा कि हमने विभिन्न क्षेत्रों में काफी अच्छी प्रगति कर ली हो,लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र में हम काफी नीचे हैं। हमारे चिकित्सक मेडिकल शिक्षा पूरी करते विदेश की ओर रुख करते हैं क्योंकि वहां उन्हें अच्छा पैकेज मिलता है या वे निजी क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की फिराक में रहते हैं। स्वेच्छा से कोई चिकित्सक गांवों में जाकर सेवा करना नहीं चाहता। सरकार की ओर से भी उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। विशेषज्ञों की सेवाएं तो वर्षों तक गांवों में नहीं पहुंच पाती। पाती।गौरतलब है कि ब्राजील जैसे विकासशील देश में प्रति हजार लोगों पर अस्पतालों में शैयाओं की उपलब्धता 2.3 है पर भारत में यह आंकड़ा केवल 0.7 को छू पाता है।श्रीलंका में यह आंकड़ा 3.6 का और चीन में 3.8 का है। डाक्टरों की उपलब्धता का वैश्विक औसत 1.3 है जबकि भारत में यह केवल 0.7 है। हमारे पास 4 लाख डाक्टरों, 7 लाख शैयाओं और लगभग 40 लाख नर्सों की कमी है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, जिनसे 30 हजार की आबादी और उप-केंद्रों, जिनसे पांच हजार की आबादी कवर करने की उम्मीद की जाती है, का या तो अस्तित्व ही नहीं है या फिर जहां वे हैं, उनमें कर्मचारियों की भारी कमी बनी है। केवल 38  फीसदी केंद्रों के पास ही आवश्यक कर्मचारी और 31 फीसदी के पास जरूरी सामान हैं। यद्यपि 73 फीसदी भारतीय देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं जबकि 75 फीसदी से ज्यादा डाक्टर शहर आधारित हैं। आज भी 90 फीसदी से अधिक ग्रामीण आबादी को बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं के लिए न्यूनतम आठ से दस किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है।
भारत की सबसे बड़ी चुनौती संक्रामक और असंक्रामक बीमारियों, कैंसर, मधुमेह और तपेदिक में बढोतरी से मौतों की बढती संख्या है। इसके अलावा नित-नई नई बीमारियों का पता चलता रहता है, जिनसे निपटने की हमारी कोई तैयारी नहीं होती। भारत में मधुमेह के रोगियों की संख्या पहले 2020 तक 3.6 करोड़ आंकी गई थी, जो अब 7.5 करोड़ से आगे निकल चुकी है। जल्द ही दुनिया में हर पांचवां मधुमेह रोगी भारतीय होगा। भारत दुनिया में तपेदिक का सबसे ज्यादा बोझ वाला देश भी है। भारत में कुल 26 फीसदी टीबी के मरीज हैं। हमारी स्लम बस्तियों तो रोग के घर ही हैं। भारत में स्वास्थ्य सेवा खर्च का 70  फीसदी निजी क्षेत्र से आता है जबकि वैश्विक औसत 38 फीसदी है और जब विकसित देशों के साथ तुलना करें तो यह आंकड़ा और भी ज्यादा है। इसके अलावा, चिकित्सा पर निजी व्यय का 86 फीसदी तक अपनी जेब से चुकाना होता है, जो यह प्रदर्शित करता है कि देश में बीमा की पैठ कितनी कम है। कुल स्वास्थ्य सेवा खर्च और बुनियादी ढांचे की आपूर्ति दोनों ही दृष्टि से हमारा देश कई विकसित और विकासशील देशों से अब भी पीछे है। सरकार जीएसटी, निजीकरण, अनुदानों, श्रम, प्रतिरक्षा, बीमा, बैकिंग, कोयला, बिजली और गैस मूल्य निर्धारण से संबंधित सुधारों पर फोकस कर रही है, जबकि स्वास्थ्य सुधारों पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, अगले कुछ वर्षों में जीवन प्रत्याशा में बढोतरी के कारण बड़ी संख्या में भारतीय 65 वर्ष की उम्र पार कर जाएंगे। उम्रदराज हो रही इस आबादी को सुविधाएं और स्वास्थ्य सेवा समेत आवश्यक सामाजिक सुरक्षा देने की दिशा में बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है।योजना आयोग के अनुसार 44 हजार डाक्टरों की बढी हुई आपूर्ति भी वर्ष 2020  की अनुमानित मांग के केवल 78  फीसदी हिस्से की ही पूर्ति कर पाएगी, जिससे प्रति 1000 लोगों पर 0.3 डाक्टरों का अंतर तब भी शेष रह जाएगा। भारतीय मेडिकल टूरिज्म इंडस्ट्री सालाना 20 फीसदी की स्वास्थ्य देखभाल खर्च दर से बढ़ रही है, जिसके 2018  तक 6 अरब डॉलर तक पहुंच जाने की उम्मीद है।इससे भारत आने वाले मेडिकल पर्यटकों की संख्या मौजूदा 2 लाख 30 हजार से बढ़कर 4 लाख हो जाएगी। मौजूदा वृद्धि दर से स्वास्थ्य सेवा उद्योग न केवल भारत के गरीबों की कम सेवा कर पाएगा बल्कि मेडिकल पर्यटकों की उससे भी कम सेवा कर पाएगा, जिनमें विदेशी पूंजी लाने की काफी क्षमता है।अभी तक क्लिनिकल और सुविधा आधारित स्वास्थ्य सेवा के लिए ही फाइनेंसिंग या वित्त पोषण पर काफी फोकस रहा है और इस प्रक्रिया में रोगों से बचाव, उनकी रोकथाम और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यों की अनदेखी कर दी गई है। संक्रामक एवं पुरानी दोनों ही प्रकार की बीमारियों के लिए सरकारी कदमों के जरिये रोकथाम जरूरी है। स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश के साथ साथ प्रणालीगत सुधारों की महती आवश्यकता है ताकि नियंत्रण और निगरानी के मुद्दों समेत सेवा प्रदान करने की मौजूदा व्यवस्था की पूरी तरीके से जांच इसमें सकारात्मक बदलाव लाया जा सके ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि देश को राष्ट्रीय स्वास्थ्य नियामक बनाकर सार्वभौमिक स्वास्थ्य मुद्दों की निगरानी करनी होगी तभी बात बनेगी।
-फारूक आफरीदी, वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार