सोमवार, 11 मई 2015

भ्रष्टाचार पर कसी जाए लगाम

संपादकीय
भ्रष्टाचार पर कसी जाए लगाम
भ्रष्टाचार की गंभीर समस्या से ना केवल हमारा देश बल्कि पूरा विश्व ही कमोबेश जूझ रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हर साल ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संस्था द्वारा भ्रष्ट देशों की रेटिंग भी होती है,जिन पर संबंधित देशों को कारगर कदम उठाने होते हैं लेकिन अभी तक लगभग सभी देश इस दिशा में नाकाम ही सिद्ध हुए हैं। भ्रष्ट लोगों और भ्रष्ट संस्थाओं को बेनकाब करने लिए जो दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए, उसका नितांत अभाव ही नज़र आता है।आज के सोशियल मीडिया युग में भी अगर हम भ्रष्टाचार के निवारण के लिए कदम नहीं उठा पाते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह विडम्बना ही है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने अथवा इस पर सख्ती से लगाम कसने के लिए हम अभी तक कोई कारगर मैकेनिज़्म विकसित नहीं कर पाये हैं। दिल्ली वाले भ्रष्टाचार जैसे नासूर से कितने परेशान हैं, इसका इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि पिछले एक महीने के दौरान दिल्ली सरकार की हेल्पलाइन नंबर 1031 पर एक लाख 10 हजार से ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं। हालांकि इनमें से अब तक महज सात मामलों में ही 25 लोगों की गिरफ्तारी हुई है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा 5 अप्रैल को तालकटोरा स्टेडियम में शुरू की गई हेल्पलाइन पर 30 दिनों के दौरान भ्रष्टाचार से संबंधित कुल 1 लाख 25 हजार फोन आए, हालांकि इनमें से 110380 फोन ही रिसीव हो पाए। अर्थात रोजाना चार हजार शिकायतें हेल्पलाइन पर रही हैं।  हेल्पलाइन पर फोन के जरिए दर्ज कराई गई शिकायतों में 6 हजार शिकायतें गंभीर पाई गईं। इनमें से 510 मामलों में शिकायत दर्ज की गई और 252 मामले एंटी करप्शन ब्रांच को भेजे गए। इनमें सर्वाधिक शिकायतें स्थानीय निकायों, पुलिस, परिवहन विभाग और जल बोर्ड जैसी सरकारी एजेंसियों के खिलाफ आई हैं। ये मुख्यत: आम जनता से संबंधित बुनियादी जरूरतों से जुड़े मामले हैं। दिल्ली में लोगों की शिकायतें दर्ज करने के लिए 35 कॉल सेंटर बनाए गए हैं, जहां पर 1031 के जरिए फोन करके शिकायतें दर्ज  कराई जाती हैं। सात शिकायतों में 25 सरकारी बाबुओं पर कार्रवाई हुई है और उन्हें गिरफ्तार किया गया है। इसके अलावा कुछ अन्य मामलों पर एंटी करप्शन ब्रांच जल्द ही कार्रवाई करने वाला है। सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार केवल निचले स्तर पर ही है ! ऊपर के स्तर पर भी स्थिति कोई संतोषजनक नहीं है। तत्काल छापामार कार्यवाही के लिए कोई योजना ही नहीं है।स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार करने वालों में कोई भय नहीं है। आम जनता परेशान है। नौकरशाही, जो जनता की गाढ़ी कमाई से  भरे गए सरकारी खजाने से मोटे वेतन प्राप्त करती है, उनमें एक बड़ा तबका भ्रष्ट आचरण से बाज ही नहीं आता। पब्लिक डीलिंग से जुड़ा कोई महकमा हो, वह भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है। सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों और अफसर यह बात भलीभाँति जानते हैं बल्कि इस कटु सत्य से अपनी आँखें मूंदे हुए हैं।
देश के सभी राज्यों में दिल्ली माडल के आधार पर भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए इस आधुनिक तकनीक का सही-सही इस्तेमाल किया जाए तो भ्रष्टाचार बहुत कुछ कम किया जा सकता है। इतना अवश्य है कि भ्रष्टाचार के नासूर को मिटाने के लिए कड़े कदम उठाने पड़ते हैं,सख्ती बरतनी पड़ती है और अपनी मशीनरी को चुस्त और दुरुस्त बनाना पड़ता है। इसकी सारी योजना को लागू करने के लिए सरकार को मुस्तैद होने की जरूरत है। अभी तो स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाली संस्थाएं ही पंगु बनी हुई हैं। वहाँ का आधारभूत ढांचा ही चरमराया हुआ है। इन संस्थाओंमें कार्यकारी अधिकारियों और कार्मिकों के पद ही रिक्त पड़े हैं। एक समस्या यह भी है कि यहां जितने अधिकारियों और कार्मिकों की वास्तविक आवश्यकता है उतने पद भी सृजित नहीं हैं। होना तो यह चाहिए की जनता के नेक, ईमानदार और साफ सुथरे चरित्र के सेवभावी लोगों को साथ लेकर सरकार कोई मैकेनिज़्म विकसित करे।
वैज्ञानिक युग की नई सूचना तकनीक ग्रामीण लोगों के लिए थोड़ी मुश्किल भरी हो सकती  है लेकिन गांवों की नई पीढ़ी अब इससे परिचित होकर इसका लाभ उठाने के प्रति सजग दिखाई दे रही है। उदाहरण के तौर पर देखें तो किसानों को मुआवजा राशि मिलने की शिकायत करने के लिए हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्रसिंह हुड्डा द्वारा जारी की गई हेल्पलाइन पर सांसद ग्राम योजना के तहत चुने गए गांव गुडियाखेड़ा के किसानों ने अपना दर्द नोट करवाया। किसानों ने फोन और इमेल के जरिए पूर्व मुख्यमंत्री को बताया कि उन्हें प्रति एकड़ 150 रुपये ही मुआवजा मिला है, जबकि अधिकतर किसानों को खराब फसल का मुआवजा भी नहीं मिला । किसानों ने बताया कि उनके साथ धोखा हुआ है। उन्हें मुआवजा राशि से वंचित रखा गया है। यह काम मीडिया भी आसानी से कर सकता है। कई मीडिया चैनल दर्शकों और अखबार अपने पाठकों के लिए हेल्पलाइन का इस्तेमाल करते हैं। अगर सभी भ्रष्टाचार दूर करने के लिए भी एक हेल्पलाईन शुरू करें तो यह भी एक बड़ी सेवा होगी।ऐसा नहीं सोचा जाना चाहिए कि यह सरकार का काम है। मीडिया के जरिये भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने से भ्रष्ट लोग कुछ तो शर्म महसूस करेंगे और उन पर दबाव भी बढ़ेगा।  
गौरतलब है कि कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला मामले में राजनीति से गहरा सरोकार रखने वाले बड़े नेताओं समेत 10 लोगों और पांच कंपनियों को आपराधिक साजिश, धोखाधड़ी, विश्वासघात व भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम की धाराओं में समन जारी कर आरोपियों को अदालत में पेश होने का निर्देश दिया गया हैप्रधानमंत्री चुनावों से पूर्व जनसभाओं में इस बड़े मुद्दे के रूप में पेश करते रहे हैं। ऐसे मामले आगे ना हों, इसकी गारंटी तो केवल सरकार ही दे सकती है। इधर दूसरी ओर मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी), केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) और लोकपाल की नियुक्ति अब तक नहीं हो पाने को आधार बनाते हुए प्रतिपक्ष में बैठी सोनिया ने पीएम पर पारदर्शिता के मुद्दे पर अपनी बात से पलटने का आरोप लगाया कहा जा रहा है कि सरकार आरटीआई अधिनियम को निष्प्रभावी बनाने पर तुली है। सरकार पर यह आरोप भी मढ़ा गया कि आम जनता को अब सरकार से सीधे सवाल करने का अधिकार नहीं रह गया है। अभी तक सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और कैग को आरटीआई के तहत जवाबदेह नहीं होने और सार्वजनिक जांच से छूट थी, लेकिन केंद्र में नई सरकार आने के बाद अब इस दायरे में पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय भी आ गए हैं। आंकड़ों के जरिये सरकार पर वार किया गया कि पिछले आठ महीने से सीआईसी का पद खाली है और तीन सूचना आयुक्तों के पद एक साल से खाली पड़े हैं जिसके चलते सूचना के अधिकार के 39  हजार मामले लंबित पड़े हैं। सूचना देने में देरी होना सूचना नहीं देने के समान है। ऐसे में सरकार के पारदर्शिता और सुशासन के वायदों को पुष्ट करने कि जरूरत है। गलत काम करने वालों को संरक्षण प्रदान करना किसी सरकार के नैतिक मूल्यों का हिस्सा नहीं हो सकता।हालांकि केंद्र सरकार के गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह का इस संबंध में कहना था कि सीआईसी पद पर नियुक्त के लिए चयन समिति अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है, जबकि सीवीसी का मामला सुप्रीम कोर्ट में है। सरकार का पक्ष कुछ भी हो लेकिन ऐसे प्रकरणों को प्राथमिकता से निपटाया जाए तो इससे सरकार की प्रतिबद्धता झलकती है वहीं जनता को भी भ्रष्टाचार से राहत मिलने का मार्ग प्रशस्त होता है।
अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी

लेखक एवं पत्रकार 

विज्ञान और तकनीकी संस्थाओं को विशेष तरजीह दी जाए

संपादकीय
विज्ञान और  तकनीकी संस्थाओं को विशेष तरजीह दी जाए
आज के इस वैज्ञानिक और टेक्नोलोजी के युग में इससे जुड़ी संस्थाओं और सरकारी प्रतिष्ठानों अथवा उपक्रमों को विशेष तरजीह देने की आवश्यकता है ताकि इनके जरिये जनता और सरकार के काम आसानी से हो सकें। देखने में आया है की इन संस्थाओं में तकनीशियनों और वैज्ञानिकों के पद खाली रहते हैं जिससे ऐसी संस्थाएं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पति । गौर तलब है की इन संस्थाओं की स्थापना पर करोड़ों रुपये खरक होते हैं लेकिन बाद में इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता और वे रेंगती रहती हैं।राजस्थान जैसे मरू प्रदेश की अपनी प्रकृतिक चुनौतियाँ हैं जिनसे निपटने में इन संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान ओ सकता है। उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि जोधपुर में रिमोट सेन्सिंग सेंटर इन दिनों बदहाली के दौर में है जिसके सुचारु संचालन के लिए सरकार को तत्काल तवज्जो देने कि जरूरत है।
रिमोट सेन्सिंग सेंटर ने स्थापना से लेकर अब तक कई महत्वपूर्ण काम अंजाम दिये है। मारू विकास कार्यक्रम के तहत इस संस्था की स्थापना वर्ष 1979 में इस सोच के साथ की गयी थी की मरुस्थल मीमे रहा रहे नागरिकों की परेशानियाँ कम करने में वैज्ञानिक और तकनीकी योगदान से कई कुछ बदलाव लाया जा सके ग। इसकी अच्छी शुरुआत भी हुई लेकिन शासन ने उतना ध्यान नहीं दिया जिसकी अपेक्षा की गयी थी। इस केंद्र ने नतीजे  देने में भी कोई कमी नहीं रखी बल्कि यहाँ के वैज्ञानिकों ने अपनी जान लगाकर कम किया। प्रथम निदेशक बी.वी. मोघे और डा.एन.के. कालरा ने अपने समर्पण के कारण खूब ख्याति अर्जित की और इस संस्थान का सम्मान राष्ट्रीय स्तर बढ़ाया। केंद्र ने उपग्रह से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर मरुस्थलीय जिलों की भौगोलिक और प्राकृतिक सम्पदा पर अनेक महत्वपूर्ण प्रतिवेदन तैयार किए हैं।इन प्रतिवेदनों को बहुत एहनत और वैज्ञानिक सूझबूझ से काफी समय लेकर तैयार किया गया था। वर्ष 2000 में प्रदेश में सूखे और अकाल के दौरान इस सुदूर संवेदन केंद्र ने इन्दिरा गांधी नहर परियोजना के के नहरी क्षेत्र के वाटर लोगिंग क्षेत्रों की उपग्रह सूचना प्रणाली से पहचान की थी। इसके आदर पर राजस्थान में अकालग्रस्त पशुधन के लिए चारा उगाने का मार्ग प्रशस्त हो सका अन्यथा आँय प्रदेशों से महंगा चारा मंगवाकर चारे की जरूरत को पूरा किया जा रहा था और इससे रदेश को कई अर्थभार वहन करना पड़ रहा था। इस संस्थान ने प्रदेश के 100 से अधिक  बांधों की भराव क्षमता के विकास का काम भी किया जो उपग्रह सूचना आधारित प्रणाली के कारण ही संभव हो सका था। अजमेर की आनासागर झील का जो वर्तमान स्वरूप आज हम देख रहे हैं, इसकी भराव क्षमता के विकास और विस्तार को सुदृढ़ बनाने में भी इस केंद्र की महत्वपून भूमिका रही है। यह वही संस्था है जिसने कुछ वर्षों पहले जयपुर के सीतापुरा में हुए भयंकर अग्निकांड के बाद वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों और उसकी तीव्रता का विशद अध्ययन करके सरकार को जानकारी उपलब्ध करवाई थी। इससे इस संस्था के महत्व और औचित्य को भलीभाँति समझा और अनुभव किया जा सकता है।
यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि अगर इस संस्थान के पास वर्तमान में पर्याप्त तकनीकी और वैज्ञानिक जनशक्ति होती तो हाल ही प्रदेश में हुई बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि के बाद किसानों को दिये जाने वाले मुआवजे के लिए मानव द्वरा तैयार गिरदावरी रिपोर्ट पर निर्भर नहीं रहन पड़ता जिस पर पक्षपातपूर्ण होने के आरोप लगते रहे हैं। यदि उपग्रह सूचना प्रणाली से गिरदावरी होती तो उस में कोई दोष नहीं ढूंढा जा सकता था बल्कि वह मानव निर्मित गिरदावरी के मुक़ाबले सही, सटीक और समय पर भी होती। इससे सरकार को यह लाभ होता कि वह अपनी रिपोर्ट यथाशीघ्र केंद्र सरकार को भिजवा देती और फसलों के खराबे के आधार परर किसानों को उचित मुआवज़ा मिलने का रास्ता तय होता और किसानों को भी गिरदावरी में कोई चूक या गलती रह जाने की शिकायत नहीं रहती।
सुदूर संवेदन केंद्र यदि पूरी क्षमता के साथ गतिशील होता तो उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर सही सह गिरदावरी होने में मदद मिलती। वर्तमान में यह केंद्र पूरी गति के स्था इसलिए काम नहीं कर पा रहा है कि इसमें कोई पूर्णकालिक निदेशक ही नहीं बल्कि पूर्णकालिक वैज्ञानिक भी सेवारत नहीं है।एक समय था जब इस केंद्र में 25 वैज्ञानिक 100 से आधी का स्टाफ हुआ करता था।इनमें से अनेक सेवानिवृत हो चुके हैं और शेष को सरकारी आदेश से अपने मूल विभागों में भेज दिया गया है। यहाँ हालत यह है कि संस्था के वैज्ञानिको के सेवा नियम ही नहीं बने। ऐसे में उनके काम करने और हित सुरक्षा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। यह विडंबनापूर्ण ही था। यह नीतियाँ और कार्यक्रम बनाने वकों का दोष ही माना जाएगा कि लंबे समय से काम कर रही एक संस्था कि घोर उपेक्षा की गयी।अब भी समय है, इस गलती को सुधारा जा सकता है। जिस संस्था ने हमेशा प्रशंसा बटोरी, उसकी इतनी दुर्दशा किसी भी रूप में समझ नहीं आती। केंद्र में कोई भी सरकार रही हाओ विज्ञान को हमेशा बढ़ावा देने के प्रयास रहे हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री ने डिजिटल इंडिया का नारा दिया है। इसके अनुसरण में राजस्थान में डिजिटल राजस्थान की बात भी बराबर की जाती रही है। डिजिटलाईजेशन या कंप्यूटर के क्षेत्र में विकास से ही सम्पूर्ण विकास संभव नहीं है।आज समग्र विकास की आवश्यकता भी है। ऐसे में विज्ञान और तकनीकी संस्थानों को सशक्त बनाए बिना विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।यह केवल एक रिमोट सेन्सिंग सेंटर का सवाल नहीं है बल्कि इस प्रकार की जितनी भी संस्थाएं हैं उनको पुनर्जीवित करने पर साकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए। ऐसी संस्थाओं के लिए आवश्यक पदों के सर्जन से लेकर उनमें कार्य करने वाले वैज्ञानिकों और तकनिशयनों के पदोन्नति के द्वार भी खोले जाने चाहिए। इन संस्थाओं को ऐसा वातावरण मिले कि वहां काम करने वाले सभी लोग अपनी सेवाएँ समर्पित भावना के साथ दे सकें। वैज्ञानिकों को केंद्र सरकार हमेशा से सम्मान देती आयी है और हमारे वैज्ञानिकों ने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं जिसकी पूरे विश्व में खास पहचान है। इस पहचान को बनाए रखने का का काम सरकार का है। खास तौर से जब बात राजस्थान की हो तो विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्यों की यह प्रदेश अभी भी वैज्ञानिक अनुसन्धानों का पूरा तो दूर किंचित लाभ भी नहीं उठा पाया है। मुख्यमंत्री जी को इस मामले में प्रसंज्ञान लेकर वैज्ञानिक अनुसन्धानों को बढ़ावा देने में पहल करने की जरूरत है। साथ ही संबन्धित विभाग को भी इसके समुत्थान के लिए प्रेरित करना चाहिए। 
अतिथि संपादक
फ़ारूक आफरीदी
लेखक एवं पत्रकार      

     

संपन्नता के अपने अधिकार को कौन छोड़ता है ?

संपादकीय
संपन्नता के अपने अधिकार को कौन छोड़ता है ?

एक तरफ देश में आरक्षण का लाभ लेने के लिए विभिन्न जातियाँ लामबंद हो रही हैं और आंदोलन की जोरदार तैयारियां की जा रही हैं वहीं दूसरी ओर यह सुनने में आ रहा है कि संसद और राज्य की विधनासभाओं के पूर्व एवं वर्तमान सदस्यों के बच्चे ओबीसी कोटे के अंतर्गत आरक्षण के लिए पात्र नहीं हैं। बताया जाता है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सिफारिश की है कि उक्त आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए । इस संबंध में ओबीसी पैनल ने कहा है कि जो भी व्यक्ति संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए चुन लिया जाता है उसका सामाजिक और आर्थिक स्तर बेहतर हो जाता है, ऐसे में उसे क्रिमीलेयर में आना चाहिए। यह प्रस्ताव उन शिकायतों के बाद दिया गया जिसमें यह कहा गया है कि जनप्रतिनिधियों के बच्चों को भी गैर-क्रिमीलेयर का प्रमाण पत्र जारी किया जा रहा है।पैनल ने यह भी प्रस्तावित किया है कि केन्द्र और राज्य सरकारों में प्रथम श्रेणी के अधिकारियों को भी आरक्षण के लाभों से बाहर किया जाना चाहिए। बावजूद इसके कि वह अधिकारी अपने पद पर सीधा नियुक्त हुआ हो अथवा प्रमोशन से उस पद पर पहुंचा हो। फिलहाल प्रथम श्रेणी का अधिकारी उन्हें ही माना जाता है जो सीधे पद पर नियुक्त हुए हैं। आयोग का कहना है कि कोई भी प्रथम श्रेणी का अधिकारी सामाजिक उन्नयन का वह स्तर पा लेता है, जहां उसे आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं होती। आयोग ने कहा कि प्रथम श्रेणी का वह अधिकारी, जो पदोन्नत होकर उस पद पर पहुंचा है, वो सीधे नियुक्त हुए अधिकारी से ज्यादा तनख्वाह पाता है। आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि क्रीमीलेयर की आय सीमा को 6 लाख से बढ़ाकर साढ़े 10 लाख किया जाए। आयोग ने यह भी कहा है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू नहीं होती। यह मसौदा आयोग ने सामाजिक न्याय मंत्रालय को भेजा है।

द्रमुक ने भी राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण लाभ के लिए क्रीमीलेयर का दायरा मौजूदा छह लाख रुपए से बढ़ाकर 10.5 लाख रुपए करने की सिफारिश का स्वागत किया और केंद्र से इसे स्वीकार करने की गुजारिश की है। पार्टी प्रमुख एम. करुणानिधि ने कहा कि द्रमुक का हमेशा से यह मानना है कि क्रीमीलेयर की कोई अवधारणा नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह अन्य पिछड़ा वर्ग को बांटता है। उन्होंने एक बयान में कहा, यह मानते हुए कि क्रीमीलेयर की अवधारणा की वजह से 27 फीसदी आरक्षण कोटा यूपीए-एक के शासन में लाया गया, को सही तरीके से लागू नहीं किया जा सका और सरकार द्वारा दिया गया लाभ अन्य पिछड़ा वर्ग को नहीं मिल सका। उनका कहना है कि नरेंद्र मोदी नीत सरकार को पिछड़ा आयोग की सिफारिशों को मानना चाहिए और तुरंत आदेश जारी करने चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर सरकार प्रस्ताव को स्वीकार करती है तो ओबीसी के अंतर्गत आने वाले करोड़ों लोगों को केंद्र और राज्य सरकार के शैक्षिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में अतिरिक्त आरक्षण का लाभ मिले सकेगा।

 

संभव है आगे चलकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति आयोग भी इसी आधार पर कोई सिफारिशें करे। यह अलग बात है कि वैसे सामान्य वर्ग में हमेशा ही सुगबुगाहट बनी रहती है कि एससी-एसटी का आरक्षण आर्थिक आधार पर मिलना चाहिए ना कि वर्ग के आधार पर दिया जाए। संसद एससी-एसटी को आरक्षण देने की अवधि पहले ही बढ़ा चुकी है और फिलहाल इसके समाप्त होने के कोई आसार नहीं हैं। दूसरी ओर एक बार विधायक, सांसद और मंत्री, मेयर, जिला प्रमुख रह चुके जन प्रतिनिधि और अखिल भारतीय सेवा या उसके समकक्ष स्तर के अधिकारी भी इसका लाभ उठाना छोड़ दें तो यह एक बड़ी पहल हो सकती है। दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि संपन्न वर्ग ने अपने आपको मिली सुविधा को स्वेच्छा से कभी छोड़ा हो। यहाँ तो कानून बन जाने के बाद भी लोग गलियाँ ढूंढ लेते हैं और कानून को धता दिखा देते हैं।
लाभ छोडने की जहां तक बात है, सम्पन्न लोग प्रधानमंत्री की बारबार की जा रही अपील के बावजूद गैस सिलेन्डर पर मिल रही अपनी सबसिडी तक छोड़ने को तैयार नहीं है। देश की आबादी लगभग सवा अरब और 15.3 करोड़ गैस उपभोक्ता हैं। मार्च 2015 तक देश के केवल 3 लाख एलपीजी उपभोक्ताओं ने गैस पर मिलने वाली सरकारी सब्सिडी लेना छोड़ा है। होना तो यही चाहिए कि आर्थिक तौर पर सक्षम तमाम लोग गैस सब्सिडी लेने से खुद मना करें। देश का कारपोरेट जगत जो लाखों रुपये मासिक सेलेरी पैकेज लेते हैं, क्या उन्हें इस दिशा में नहीं सोचना चाहिए ! इसी तरह देश की बहुत बड़ी नौकरशाही जमात भी इसी दायरे में आती है। वे भी सब्सिडी का लाभ उठा रहे हैं और स्वेच्छा से छोड़ने को राजी नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने दिल्ली में हुए ऊर्जा संगम सम्मेलन में कहा, ‘क्या देश में ऐसे लोग नहीं हैं जो कहें: हमें गैस सब्सिडी की ज़रूरत नहीं है। हम खुद कमाकर गैस खरीद सकते हैंउन्होंने मैं देशवासियों से अपील की : आइए, हम गिव इट अप केंपेन से जुड़ें और गैस सब्सिडी को छोड़ें।साथ ही सरकार सब्सिडी से हुई बचत का इस्तेमाल गरीबों तक सस्ती गैस पहुंचाने में करना चाहती हैप्रधानमंत्री का इशारा आने वाले दिनों में तेल-गैस आयात पर निर्भरता घटाने की पहल को लेकर भी थाउन्होंने 2022 तक उर्जा से स्रोतों के आयात पर निर्भरता दस फीसदी तक घटाने की मंशा भी दर्शाई।देश के लाखों एलपीजी उपभोक्ताओं तक गैस सब्सिडी का फायदा सीधे उनके बैंक खातों तक पहुंचाने में सफलता के बाद अब प्रधानमंत्री गैस सब्सिडी पुनर्गठित करने की दिशा में सरकार की कोशिश को और आगे बढ़ाना चाहते हैं। गैस सब्सिडी छोड़ो मुहीम उनकी इसी रणनीति का एक अहम हिस्सा है।प्रधानमंत्री को बजाय अपील के अब कानून बनाकर सक्षम लोगों की सब्सिडी एक झटके में खत्म करने का फैसला करने की जरूरत है ।
गौरतलब है कि इन जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्ते बिना बहस के लोकसभा से लेकर विधानसभाओं तक में पारित हो जाते हैं।यही नहीं ये भत्ते कई गुना बढ़ जाते हैं। विपक्ष मेन बैठी पार्टियां भी ऐसे समय चुप्पी साध लेती हैं और कहीं कोई विरोध नहीं होता। यह सारा धन जनता की गढ़ कमा का ह हिस्सा होता है। इसी प्रकार कई मंत्रियों और अधिकारियों को को जब  कई विभागों का अतिरिक्त प्रभार मिलता है तो उन विभागों की गाड़ियों का भी बेजा इस्तेमाल किया जाता है।जाहीर है इंका बेजा इस्तेमाल करने वालों मेन इनके परिवार सबसे आगे रहते हैं और कोई रोकने–टोकने वाला नहीं होता। ऐसे में क्या ये मंत्रीगण और अधिकारीगण स्वेच्छा से इन सुविधाओं का लाभ नहीं छोड़ सकते! सरकार नियम बनाकर इस प्रकार के दुरुपयोग को रोक सकती है।

अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी

लेखक और पत्रकार