गुरुवार, 26 मार्च 2015

रसूखदारों के कारण बैंकों की हालत बदहाल



संपादकीय
      
रसूखदारों के कारण बैंकों की हालत बदहाल

देश के प्रभावशाली लोगों द्वारा बैंकों में जमा आम जनता का धन कर्ज लेकर वापस नहीं लौटाने के चलते बैंकों की हालत बदहाल हो चली है। इस स्थिति के चलते सार्वजनिक बैंकों को बेहद परेशानी से गुजरना पड़ रहा है। केंद्र सरकार के वित्त राज्यमंत्री ने यह तथ्य राज्यसभा में स्वीकार किया है बैंकों के लिए गहरे संकट का कारण बन चुकी गैर- निष्पादित संपत्तियों (एनपीए) या खराब कर्ज की स्थिति यह है कि 95,122 करोड़ रुपए का एनपीए तो केवल    30 प्रभावशाली  रसूखदार डिफॉल्टर्स में ही बकाया चल रहा है। वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा की मानें और उनके द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आंकड़ों पर निगाह डालें तो दिसंबर 2014 के अंत तक देश के सभी सार्वजनिक बैंकों का कुल एनपीए 2,60,531 (दो लाख साठ हजार पांच सौ इकतीस) करोड़ रुपए था। इनमें से शीर्ष 30 डिफॉल्टर्स पर 36.5 प्रतिशत एनपीए पर की राशि बकाया चल रही है, जिसे वे नहीं लौटा रहे हैं और बैंक उनके चक्कर काट-काट कर परेशान हो चुकी है। आरबीआई के अनुसार सितंबर 2014 के अंत तक 10 करोड़ या उससे ज्यादा एनपीए रखने वाले कर्जदारों की संख्या 2897 थी। इनके पास बैंकों का कुल 1,60,164 करोड़ रुपए बकाया पड़ा हुआ था। वहीं क्रेडिट कार्ड से जुड़े 7443 मामले सामने आए, जिनमें बैंकों की 29 करोड़ रुपए की पूंजी अटकी हुई थी, जो लाख कोशिशों के बावजूद वसूल नहीं हो सकी। सरकार मान रही है कि 95,122 करोड़ रुपये तो केवल 30 बड़े  कर्जदारों के पास है और 2,60, 531 करोड़ रुपए बैंकों का एक प्रकार से खराब कर्ज है। सरकार और बैंक इस चिंता में डूबे हुए हैं कि इन लोगों में फंसी ये 36.5 प्रतिशत राशि कैसे निकलवाई  जाये ताकि बैंकों की हालत सुधारी जा सके।

तीन वर्ष पहले के आंकड़े भी कमोबेश ऐसे ही थे। तब यह अनुमान लगाया गया था कि देश के बैंकिंग क्षेत्र के जोखिम गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) जून 2012 के 1.57 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर दो लाख करोड़ रुपए के पार पहुंच सकता है।ताजा आंकड़े बताते हैं कि उस समय लगाये गए अनुमान सही निकले और ये हालात आज भीजस के तस हैं बल्कि बदतर हालात ही हैंउद्योग संगठन (एसोचैम) ने तीन साल पहले जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ रहे दबाव से भी एनपीए में बढ़ोतरी हो रही है। जून 2012 में एनपीए का अनुपात 2.94 प्रतिशत था, जिसके बढ़कर 3.75 प्रतिशत पर पहुंचने का अनुमान है। रिपोर्ट में कहा गया कि जोखिम वाली संपत्तियों में बढ़ोतरी के रुख के जारी रहते प्रावधानों में वृद्धि होने, संपतियों की गुणवत्ता प्रभावित होने और कारोबार बढ़ाने के लिए अतिरिक्त पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ ही वित्तीय और चालू खाता बढ़ने से गैर निष्पादित संपतियों में बढ़ोतरी हो रही है। इसमें कहा गया कि उम्मीद से खराब प्रदर्शन करने वाले क्षेत्रों पावर, विमानन, राजमार्ग, माइक्रो फाइनेंस संस्थानों, बंदरगाहों, दूरसंचार और कई दूसरे कारकों से जोखिम वाली संपत्तियों में बढ़ोतरी हो रही है। इस प्रकार रिपोर्ट ने सीधे-सीधे सरकार के उपक्रमों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन हकीक़त यह भी है जिस तरफ एसोचेम ने उंगली नहीं उठाई कि इसके अलावा वे भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जो निजी क्षेत्र के बड़े प्रतिष्ठान हैं। इन प्रतिष्ठानों का राजनीति में काफी दखल और दबदबा है। वे इतने लम्बे रसूख वाले हैं कि उन पर बैंक अधिकारी चाहकर भी हाथ नहीं डाल सकते। सभी जानते हैं कि उन्हें अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक वरदहस्त प्राप्त है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि बैंकों के पुनगर्ठित ऋणों का प्रतिशत मार्च 2013 तक बढ़कर छ: प्रतिशत तक पहुंच सकता है। साथ ही यह भी कहा गया कि अदालती हस्तक्षेप, सुधार में विलंब, लागत को उपभोक्ताओ पर डालने में देरी, कर से जुड़े मामलों में अस्पष्टता से आर्थिक गतिविधियों के माहौल को खराब कर रहा है। सच तो यह है कि जिन कारणों को बताया या गिनाया गया, उस दिशा में सरकार ने कभी कोई ठोस कदम उठाना तो दूर बल्कि विचार ही नहीं किया गया, क्यों कि उन निहित स्वार्थ जुड़े हुए थे। अगर ये हालत बदस्तूर जारी रहते हैं तो वित्तीय घटा निरंतर बढ़ता ही रहने वाला है और हालात कभी काबू में नहीं आ सकते। दूसरी ओर लघु एवं मध्यम उद्यमों के प्रदर्शन के प्रभावित होने और कृषि क्षेत्र पर बने दबाव से बैंकों के एनपीए में बढ़ोतरी के पुख्ता संकेत मिल रहे हैं।

कुछ समय पूर्व देश की दो प्रमुख बैंकों के अधिकारियों द्वारा बैंक माफियाओं के साथ सांठगांठ को लेकर दायर की गयी याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीबीआई को जांच के आदेश दिए थे याचिका में आरोप लगाया गया था कि 'भारतीय स्टेट बैंकऔर 'स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंकके अधिकारियों ने एक साजिश के तहत गैर-निष्पादित संपतियां बेहद कम दामों में बिल्डर माफिया को बेच दीदिल्ली के एक उद्योगपति और मेसर्स विशाल गोपाल लिमिटेड के निदेशक सरोज कुमार बगारिया ने अपनी याचिका में कहा कि वर्ष 1999 में भारतीय स्टेट बैंक ने उनकी फर्म से संपत्ति गिरवी रखकर उसे पांच करोड़ रुपए का लोन दिया थालोन लेने के बाद फर्म घाटे में चली गयी और वह लोन चुकता नहीं कर सकीभारतीय स्टेट बैंक और स्टैंडर्ड चाटर्ड बैंक के कुछ अधिकारियों ने मिलकर उनकी संपति को गैर-निष्पादित संपति घोषित कर दी और उसे बिल्डर माफिया को बहुत कम दामों में बेच दियाइसे साजिश बताते हुए अदालत से दरख्वास्त की गयी थी कि वह उनकी शिकायत के आधार पर सीबीआई और बैंक प्रतिभूतियां एवं धोखाधड़ी प्रकोष्ठ को प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दे। इस पर अदालत ने प्रसंज्ञान लिया।
बैंकों के नियम अब बहुत कड़े किये जा रहे हैं और नये लोन व्यक्ति अथवा संस्था की नागरिक  (साख) को देखकर दिए जा रहे हैं जबकि हकीक़त यह है कि जिन लोगों पर बैंकों ने मनमाने ब्याज और हिडन चार्जेज लगाकर परेशां कर दिया और जिन्होंने अपने खाते सैटलमेंट के आधार पर बैंक की रकम अदा करदी उन्हें अभी भी सिविल रिपोर्ट में दोषी माना जा रहा है और न्य लोन नहीं दिया जा रहाअनेक प्रकरणों में 5 से 10 साल पुराने मामलों में सैटलमेंट के बावजूद उनकी सिविल साख को ख़राब रिपोर्ट के रूप में दर्ज किये हुए है जबकि उन्हें इस रिपोर्ट से हटा जाना चाहिए। एक बार किसी की गलती हो गयी और उसने बैंक से मामला सैटल कर लिया तो फिर भी उसे अपराधी या दोषी की श्रेणी में रखना कहां तक उचित है। कई मामलों में बैंकों ने सैटलमेंट के बावजूद खाते जारी रखे और मंथली स्टेटमेंट भेजते रहे और बिलिंग जरी राखी और नए सिरे सर लोगों को कर्जदार घोषित किये रखा और उनमें बकाया निकलते रहे। ऐसे मामले तत्काल समाप्त आकर लोगों को सिविल साख के दोष से मुक्त करने पर सरकार को विचार करना चाहिए। सरकार बेशक उन लोगों और प्रतिष्ठानों पर कानूनी कार्यवाही करे जो बैंकों से कर्ज लेकर वापस लौटा नहीं रहे। सरकार से यह बात भी छिपी नहीं है कि घोटालेबाज लोग और प्रतिष्ठान नाम बदल करके भी वही सब कुछ कर रहे हैं और उन्हें भ्रष्ट अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त है।
अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी,
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार 

नारी शक्ति के फैसलों पर अमल भी हो



राज्य में डायन प्रथा के विरुद्ध कानून बनाने और बालिका यौन शोषण को रोकने के लिए बनी योजना पर मेरा संपादकीय 25.march2015 को दैनिक राष्ट्रदूत, जयपुर सहित प्रदेश के सभी संस्करणों में प्रकाशित हुआ है.


संपादकीय
नारी शक्ति के फैसलों पर अमल भी हो
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग और महिला एवं बाल विकास विभाग ने स्त्री शक्ति के पक्ष में अनेक फैसले किये हैं लेकिन इन फैसलों पर अमल भी उसी भावना के अनुरूप होना चाहिए तभी इनकी सार्थकता है।अक्सर होता ये है कि फैसले तो बहुत हो जाते हैं, लेकिन उन पर सही रूप से अमल नहीं हो पाता और अपराधी छूट जाते हैं और निरपराधी उसकी पीड़ा भोगते रहते हैं। सरकार डायन प्रथा की रोकथाम के लिए कानून बनाने जा रही है जो स्वागत योग्य कदम है। आजादी के 67 साल गुजर जाने के बाद भी इस सामाजिक बुराई और जघन्य अपराध के विरुद्ध कानून का नहीं बन पाना शासन की घोर उदासीनता ही माना जाएगा और इसके लिए पूर्व में शासन करने वाले भी कोई कम जिम्मेदार नहीं हैं। सरकार इस कानून को जल्द से बनाये और आगामी महिला दिवस तक महिलाओं को उनका सम्मान लौटाने वायदा पूरा करे। यहाँ कहना प्रासंगिक होगा कि राजस्थान का कोई अंचल ऐसा नहीं है जहाँ महिलाएं यह अभिशाप ना झेल रही हों। हमारा समाज और शासन दोनों ही इससे अपरिचित नहीं हैं।अगर सरकार ने मसौदा तैयार कर लिया है और अगले वित्त वर्ष तक इसे लागू करना है तो इस पर अमल समय सीमा में होना ही चाहिए। इस कानून के बन जाने से समाज की सबसे कमजोर, दलित और पिछड़े वर्गों की महिलाओं को बड़ी राहत मिल सकेगी। जब तक ये कानून नहीं बन जाता तब तक प्रशासन और पुलिस को यह कड़ी हिदायत दी जानी चाहिए कि ऐसे प्रकरणों को हल्के में ना ले और दोषी लोगों को सजा दिलवाने के लिए पुख्ता प्रबंध हों।जहाँ कहीं ऐसे प्रकरण सामने आयें वहा तुरंत प्रसंज्ञान लेकर कार्यवाही की जाये। 
राज्य सरकार ने यौन शोषण और विभिन्न हिंसा से पीड़ित बालिकाओं तथा उनके परिवारों को आवश्यक परामर्श, कानूनी प्रक्रिया, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में लाभ और मुआवजा दिलवाने के लिए ‘विजयाराजे सिंधिया बालिका संरक्षण एवं सम्मान योजना’ बनाई है जो स्वागत योग्य है लेकिन असली स्वागत तो तभी होगा जब इसका लाभ वास्तविक पीड़ित वर्ग को मिलने लगेगा।कोई भी योजना अपने आप में बुरी नहीं होती, असल में उसके क्रियान्वयन पर ही सारा दारोमदार टिका रहता है।योजना पर ईमानदारी और प्रतिबद्धता से अमल हो तो कोई दिक्कत हो ही नहीं सकती। यह काम शासन के सम्बंधित मंत्री और विभाग के आला अफसरों का है कि वे योजनाओं के अमल पर कड़ी नजर रखें और समय–समय पर उनकी मोनिटरिंग करते रहें ताकि कहीं कोई कमी, खामी, कोताही बरती जा रही हो तो उसमें तुरंत हस्तक्षेप करके उसे सुधारा जा सके। योजनाओं की सफलता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब उनमें जनप्रतिनिधियों और जनता की सक्रिय भागीदारी हो।इस दृष्टि से जनप्रतिनिधियों को जिम्मेदारी सौंपी जाये और देखा जाये  कि वे इनमें रूचि ले रहे हैं या नहीं। इसके साथ ही सामाजिक संघठनों को भी शामिल किया जाये।सरकार के विभाग और उनके अधीन काम कर रहे संस्थान जैसे महिला आयोग को भी इसमें बराबर की भागीदारी निभानी होगी। बालिका संरक्षण एवं सम्मान योजना के तहत 18 वर्ष से कम आयु की बालिका, जिसने खुद और अपनी साथी का बाल विवाह या यौन शोषण रोका हो, राज्य सरकार उसे सम्मानित करेगी। इस फैसले से बालिकाओं को प्रोत्साहन मिलेगा और वे अन्याय और अनाचार के विरुद्ध साहसपूर्वक उठ खड़ी हो सकेंगी।यह भी योजना है कि अब छात्रावासों में बायोमेट्रिक प्रणाली से प्रवेश दिया जाकर उपस्थिति दर्ज की जाएगी।फ़िलहाल यह योजना पाली जिले में लागू है और अब इसका विस्तार किया जा रहा है। इस योजना के लिए धन की कमी बाधक नहीं बननी चाहिए और यथा समय सभी जिलों में लागू हो जाती है तो निश्चय ही अपराधों में कमी आयेगी और अवांछित व्यक्ति छात्रावासों में प्रवेश नहीं कर पाएंगे।सरकार ने हालाँकि इस योजना को चरणबद्ध रूप से लागू करने की बात कही है।
जहाँ तक वृद्धावस्था और विधवा पेंशन की बात है तो साकार ने इस बारे में भी फैसला किया है कि सामाजिक सुरक्षा पेंशनर्स के बैंक खातों की सूचना विभाग के वेबसाईट पर डाल दी है और अगले वित्त वर्ष यानी अप्रेल 2015 से पेंशन का भुगतान बैंकों के जरिये होने लगेगा।यहां विभाग को यह देखना होगा कि कोई पात्र व्यक्ति पेंशन से वंचित न रह जाये, क्योंकि लोगों के नामों के अंतर अथवा पते या उम्र को लेकर कहीं कोई त्रुटी रह जाये तो भी पेंशन से वंचित होना पड़ता है। अनेक प्रकरणों में सूचना अथवा मार्गदर्शन के अभाव या नि:शक्तजन होने की अवस्था में कई लोग वंचित रह सकते हैं। ऐसे में विभाग को सभी इलाकों में पेंशन शिविरों का आयोजन करके उन त्रुटियों को दुरुस्त करना चाहिए और साथ ही ऐसी पेंशन के नए हकदारों को भी लाभान्वित करने की आवश्यकता है। सरकार को खास तौर से विधवा महिलाओं के मामले में संवेदनशीलता का दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है, क्योंकि उनके तो जीवन का एक मात्र आधार ही ये पेंशन होती है। यह अच्छी बात है कि पेंशन के लिए ई-मित्र पर आनलाइन आवेदन लिए जायेंगे, लेकिन देखने की बात यह है कि कितने पेंशन के हक़दार लोग आनलाइन आवेदन करने में सक्षम हैं। सरकार को ऐसे पात्र व्यक्तियों को लाभ दिलाना है तो उनके आवेदन-पत्र आमंत्रित करने में उनकी हर संभव मदद करनी होगी, क्योंकि प्रदेश में साक्षरता का प्रतिशत ही जब बहुत  कम है तो कम्प्युटर साक्षरता की तो बहुत दूर की बात है।                           
सरकार द्वारा विशेष योग्यजनों के लिए रोजगार मेलों के आयोजन की बात कही गयी है। दरअसल उन्हें सम्मान के साथ रोजगार मिलना ही चाहिए। विशेष योग्यजन भी हमारे समाज के अभिन्न अंग हैं।उनके साथ सहानुभूति से ज्यादा उनके योग्य काम और संबल प्रदान करने की महती आवश्यकता है।उन्हें नि:शक्तता का उचित प्रमाण-पत्र और कृत्रिम अंग उपलब्ध करवाकर उनके जीवन को सार्थक बनाया जाना चाहिए।समाज में एकल परिवारों की बढती धारणा के कारण वृद्धजनों के सामने बड़ी समस्या पैदा हो गयी है और उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं।ऐसे बुजुर्गों को सम्मानजनक जीवन बिताने के लिए वृद्धाश्रम बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। सरकार ने आगामी वित्तीय वर्ष में संभाग स्तर पर सरकारी वृद्धाश्रम स्थापित करने की बात कही है, लेकिन फ़िलहाल तो सरकार के स्तर पर ऐसा कोई आश्रम नहीं है ।ऐसे में सरकार  निजी क्षेत्र के वृद्धाश्रमों को प्रोत्साहन दे तो योजना फलीभूत हो सकती है। सरकार यदि स्वयंसेवी संस्थाओं को इसके लिए नि:शुल्क भूमि उपलब्ध कराये तो काफी अच्छे वृद्धाश्रम बन सकते हैं और उपेक्षित बुजुर्ग वहां अपने जीवन के अंतिम पड़ाव को आसानी से गुजार सकते हैं। यह भी शुभ है कि बढ़ते बाल अपराधों से जुड़े बोर्ड को सरकार प्रभावी बनाना चाहती है और इसके लिए जयपुर में नया किशोर बोर्ड,जयपुर-2 और किशोर न्याय बोर्ड ग्रामीण के गठन का विचार रखती है। यह कदम भी जल्दी ही उठाना चाहिए। सरकार द्वारा जयपुर में एक और बाल कल्याण समिति भी बनाने जा रही है, लेकिन इससे अधिक आवश्यक यह है कि राज्य स्तर और जिला समितियों को अधिक सक्षम बनाया जाये तथा उन्हें अधिक अधिकार संपन्न बनाया जाये।
अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी,
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
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पत्रकारिता विश्वविद्यालय जारी रखा जाना चाहिए


संपादकीय
पत्रकारिता विश्वविद्यालय जारी रखा जाना चाहिए
प्रदेश की राजधानी में राज्य सरकार के सहयोग से संचालित किये जा रहे हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय को बंद करने की ख़बरें आ रहीं हैं, जो पत्रकारिता जगत के लिए चिंता का विषय है। प्रदेश में नई भाजपा सरकार के गठन के बाद पिछली कांग्रेस सरकार के अंतिम छह माह में लिए गए फैसलों की समीक्षा के लिए गठित कैबिनेट उप समिति ने इस विश्वविद्याल़य को बंद करने की सिफारिश की है।समझ नहीं आता कि इसमें केबीनेट उपसमिति को क्या खोट नजर आयाइस विश्वविद्यालय से किसी का नुकसान भी नहीं हो रहा और न ही किसी व्यक्ति या समुदाय को इसके जरिये अनुचित लाभ पहुंचाने की बात नजर आती है। इस विश्वविद्यालय के बने रहने से जहां प्रदेश के हजारों ऐसे विद्यार्थियों को लाभ मिलेगा जो पत्रकारिता और जनसंचार को अपने जीवन में रोजगार का आधार बनाना चाहते हैं इसमें भला किसी का क्या नुकसान हो सकता है।अगर सरकार के लिए ये सचमुच ही फिजूलखर्ची वाला संस्थान होता तो इसी प्रकृति के भारत सरकार के अधीन संचालित भारतीय जन संचार संस्थान को प्रधानमंत्रीजी और अधिक विकसित करने का फैसला क्यों लेते और मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित राज्यों में ऐसे विश्वविद्यालय क्यों संचालित किये जा रहे हैं। सरकार अपने वित्तीय घाटे को कम करने या मितव्ययता का तर्क देती है तो उसके पास ऐसे अनेक राजकीय उपक्रम हैं जो बड़े घाटे में चल रहे हैं,उन्हें बंद किया जाना चाहिए। इसके साथ ही सरकार को अन्य फिजूलखर्ची वाले मदों पर कारगर लगाम लगा सकती है।
आज देश में शिक्षा और खास तौर से उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा तथा विषय विशेष की शिक्षा देने का वातावरण बना हुआ है ताकि हमारे प्रतिभावान युवा अपने विषयों की शिक्षा प्राप्त कर उसके आधार पर दुनिया में कहीं भी रहकर अपने कर्म क्षेत्र में उत्कृष्टता के माध्यम से अपनी धाक जमा सकें। ऐसे में पत्रकारिता विषय के ज्ञानार्जन कि दिशा में प्रदेश में हुई इस अनूठी पहल को बढ़ावा देने की बजाय बंद कर देना कोई समझदारी भरा कदम हरगिज नहीं हो सकता।मान लिया जाये कि यह कदम राजनीतिक दृष्टि से उठाया जा रहा है तो भी इसमें किसी पार्टी को राजनीतिक माईलेज नहीं मिलने वाला है। अलबत्ता प्रदेश का वर्तमान नेतृत्व इस विश्वविद्यालय को सक्षम बनाता है तो ये श्रेय जरूर उसे मिलेगा।इसके साथ ही पत्रकारिता शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों का भविष्य भी संवरेगा।
आज के सूचना और प्रौद्योगिकी के युग में पत्रकारिता के विविध आयाम सामने आ रहे हैं और लोकतंत्र को सबल बनाने में इसके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाता है,जिसे और मजबूती देने की दरकार है।देश में यह क्षेत्र तेजी से पनप रहा है और लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में नई पीढ़ी इसे एक चुनौती के रूप में अपना रही है। ऐसे में इस संस्थान को बंद कर देने का निर्णय चौंकाता है और पुनर्विचार की अपेक्षा करता है। आजादी के बाद प्रदेश में हुई इस अभिनव शुरुआत का स्वागत किया जाना चाहिए। यह विश्वविद्यालय एक अर्थ में सरकार के सूचना और जनसंपर्क विभाग की कार्य प्रणाली और बदलते परिवेश में उसकी बढती उपयोगिता के मद्देनजर भी अधिक प्रभावी एवं शक्तिशाली बनाने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है। जनसंपर्क विभाग ने प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक और सोशियल  मीडिया प्रचार के साथ अब विज्ञापन के सारे काम भी अपनी जनसंपर्क टीम को सौंप दिए हैं। जनता को आकर्षित करने वाले विज्ञापन बनाने का काम अब तक विज्ञापन एजेंसियां अपनी अनुभवी क्रिएटिव स्क्रिप्ट राईटर्स टीम के जरिये अंजाम दे रही थी। सरकार के विज्ञापन को नई सोच के साथ थीम आधारित विज्ञापन भी बनाने होंगे। प्रिंट,इलेक्ट्रोनिक और सोशियल मीडिया में  सरकार की प्रभावी छवि के लिए पीआर टीम में नई सोच विकसित करने में इस विश्वविद्यालय की अनुभवी फैकल्टी का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। ऐसे में होना तो यह चाहिए कि यह विश्वविद्यालय आने वाले समय में पत्रकारिता और जन संचार के क्षेत्र में एक शानदार मिसाल बने और पत्रकारिता के विद्यार्थी इसमें प्रवेश लेना अपना गौरव समझें।
यहां कहना प्रासंगिक होगा कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर ऐसी अनेक योजनायें संचालित हैं जो अपनी कार्यशैली के कारण बदनाम हैं, लेकिन सरकार ने उन्हें बंद नहीं किया। अगर सिस्टम में कोई गड़बड़ी है तो उसमें सुधार किया जाना चाहिए, बंद करने का तो कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता। एक बात और भी है कि मीडिया क्षेत्र के विकास और विस्तार की भावी संभावनाओं को देखते हुए देश भर में वर्तमान में पत्रकारिता और जनसंचार की शिक्षा के नाम पर निजी क्षेत्र में अनेक संस्थाएं कुकुरमुत्ते की तरह खुल गयी हैं, जहां विद्यार्थियों का शैक्षणिक और आर्थिक शोषण हो रहा है लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहीं है। यह विश्वविद्यालय पूरी संजीदगी और सीमित संसाधनों के बावजूद अपनी एक पहचान बना रहा है, जिसे बंद करने से निजी क्षेत्र के मीडिया संस्थानों को खुली लूट की छूट मिल जाएगी। प्रदेश के दूरदराज ग्रामीण इलाकों में भी अब पत्रकारिता तेजी से पनप रही है और इस विश्वविद्यालय की स्थापना से उन नवोदित पत्रकारों में इस विषय की व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त करने की आशा बलवती हुई है। अतः इस दिशा में ठोस प्रयास हों कि इस विश्वविद्यालय के लिए हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओँ के वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकारों का एक ऐसा सशक्त पैनल बने जो समय-समय पर इस विश्वविद्यालय की फेकल्टी के रूप में इसे समृद्ध करे। भारत में काम कर रहे विदेशी पत्रकारों के अनुभवों को भी यहाँ के विद्यार्थियों के बीच शेयर किया जा सकता है। कोई भी निर्णय लेने से पूर्व इस विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद से अब तक यहां प्राध्यापकों की संख्या, अन्य शैक्षणिक स्टाफ एवं संसाधनों के स्तर पर हुई प्रगति का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि आज विश्वविद्यालयों की उपाधियों और वहां हो रहे शोध कार्यों को लेकर अनेक सवाल उठाये जा रहे हैं। हमारे अधिकांश विश्वविद्यालय गुणवत्ता के मानक स्तर पर खरे नहीं उतर रहे और ग्रेडिंग में निचले पायदान पर खड़े हैं,जो सभी के लिए चिंता का विषय है।जब ऐसे विश्वविद्यालयों को भी बंद करने की कोई योजना नहीं है तो गतिशील हो रहे इस पत्रकारिता विश्वविद्यालय की भ्रूण हत्या कर देना कहां की समझदारी होगी,यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है। एक अनुभवी एवं वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा दौर भी देखा गया जब पत्रकारिता में राज्य विशेष के पत्रकारों  की बड़ी खेप प्रवेश कर गयी, जिसमें राजस्थान कहीं नहीं थाआज भी नवोदित किसी अखबार में प्रशिक्षण लेकर नहीं बल्कि नई दिल्ली के ख्यातनाम मास मीडिया संस्थानों से ट्रेनिंग लेकर आ रहे हैं।इसके विपरीत राजस्थान के अख़बारों को कैम्पस भर्ती के लिए वहां जाना पड़ता हैकहने का तात्पर्य यह है कि अब पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा अनिवार्य हो गई है। राजस्थान के पत्रकार विद्यार्थी अगर नेशनल मीडिया में जायेंगे तो राजस्थान को भी अधिक कवरेज मिलेगा और राज्य की आवाज भी सम्मान के साथ सुनी जाएगी। यह शासन के लिए भी हर दृष्टि से फायदेमंद साबित होगा। इसे किसी राजनैतिक नजरिये से नहीं बल्कि राज्य हित में  देखने की जरूरत है। हमारे प्रतिभाशाली पत्रकार अधिक से अधिक सामने आएंगे और राष्ट्रीय एवं आंचलिक मीडिया को  नेतृत्व प्रदान करेंगे तो जाहिर है कि इससे राष्ट्र के बौद्धिक जगत में राजस्थान का प्रभुत्व बढेगा। आशा की जानी चाहिए कि प्रदेश का वर्तमान नेतृत्व इस विश्वविद्यालय को लेकर ऊहापोह की स्थिति को विराम देगा और ऐसा हरगिज नहीं होने देगा, जिससे कोई असंतोष पैदा हो। शासन अपने फैसले पर एक बार फिर गंभीरता से विचार कर विवेकपूर्ण निर्णय लेगा।
अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी,
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार