संपादकीय
रसूखदारों के कारण बैंकों की
हालत बदहाल
देश
के प्रभावशाली लोगों द्वारा बैंकों में जमा आम जनता का धन कर्ज लेकर वापस नहीं
लौटाने के चलते बैंकों की हालत बदहाल हो चली है। इस स्थिति के चलते सार्वजनिक
बैंकों को बेहद परेशानी से गुजरना पड़ रहा है। केंद्र सरकार के वित्त राज्यमंत्री ने यह तथ्य
राज्यसभा में स्वीकार किया है। बैंकों के लिए गहरे संकट का कारण
बन चुकी गैर- निष्पादित
संपत्तियों (एनपीए) या खराब कर्ज की स्थिति यह है कि 95,122 करोड़
रुपए का एनपीए तो केवल 30 प्रभावशाली
रसूखदार डिफॉल्टर्स में ही बकाया
चल रहा है। वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा की मानें और उनके द्वारा राज्यसभा में
प्रस्तुत भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आंकड़ों पर निगाह डालें तो दिसंबर 2014 के
अंत तक देश के सभी सार्वजनिक बैंकों का कुल एनपीए 2,60,531 (दो लाख साठ हजार पांच
सौ इकतीस) करोड़ रुपए था। इनमें से शीर्ष 30 डिफॉल्टर्स पर 36.5 प्रतिशत एनपीए
पर की राशि बकाया चल रही है, जिसे वे नहीं लौटा रहे हैं और बैंक उनके चक्कर
काट-काट कर परेशान हो चुकी है। आरबीआई के अनुसार सितंबर 2014 के
अंत तक 10 करोड़
या उससे ज्यादा एनपीए रखने वाले कर्जदारों की संख्या 2897 थी। इनके पास बैंकों का
कुल 1,60,164 करोड़ रुपए बकाया पड़ा हुआ था। वहीं क्रेडिट कार्ड से जुड़े 7443 मामले
सामने आए, जिनमें
बैंकों की 29 करोड़
रुपए की पूंजी अटकी हुई थी, जो लाख कोशिशों के बावजूद वसूल नहीं हो सकी। सरकार मान
रही है कि 95,122 करोड़ रुपये तो केवल 30 बड़े कर्जदारों के पास है और 2,60, 531 करोड़ रुपए बैंकों
का एक प्रकार से खराब कर्ज है। सरकार और बैंक इस चिंता में डूबे हुए हैं कि इन
लोगों में फंसी ये 36.5 प्रतिशत राशि कैसे निकलवाई जाये ताकि बैंकों की हालत सुधारी जा सके।
तीन वर्ष पहले के आंकड़े भी कमोबेश ऐसे ही थे। तब यह अनुमान लगाया गया था कि देश के बैंकिंग क्षेत्र के
जोखिम गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) जून 2012 के 1.57 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर दो लाख करोड़ रुपए के पार पहुंच सकता है।ताजा आंकड़े
बताते हैं कि उस समय लगाये गए अनुमान सही निकले और ये हालात आज भीजस के तस हैं बल्कि
बदतर हालात ही हैं। उद्योग संगठन (एसोचैम) ने तीन
साल पहले जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ रहे दबाव
से भी एनपीए में बढ़ोतरी हो
रही है। जून 2012
में एनपीए का अनुपात 2.94 प्रतिशत था, जिसके
बढ़कर 3.75 प्रतिशत पर पहुंचने का अनुमान है। रिपोर्ट में
कहा गया कि जोखिम वाली संपत्तियों में बढ़ोतरी के रुख के जारी रहते प्रावधानों में
वृद्धि होने, संपतियों की गुणवत्ता प्रभावित होने और कारोबार
बढ़ाने के लिए अतिरिक्त पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ ही वित्तीय और
चालू खाता बढ़ने से गैर निष्पादित संपतियों में बढ़ोतरी हो रही है। इसमें कहा गया
कि उम्मीद से खराब प्रदर्शन करने वाले क्षेत्रों पावर, विमानन,
राजमार्ग, माइक्रो फाइनेंस संस्थानों, बंदरगाहों, दूरसंचार और कई दूसरे कारकों से जोखिम
वाली संपत्तियों में बढ़ोतरी हो रही है। इस प्रकार रिपोर्ट ने सीधे-सीधे सरकार के
उपक्रमों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन हकीक़त यह भी है जिस तरफ एसोचेम ने
उंगली नहीं उठाई कि इसके अलावा वे भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जो निजी क्षेत्र के
बड़े प्रतिष्ठान हैं। इन प्रतिष्ठानों का राजनीति
में काफी दखल और दबदबा है। वे इतने लम्बे रसूख वाले हैं कि उन पर बैंक अधिकारी
चाहकर भी हाथ नहीं डाल सकते। सभी जानते हैं कि उन्हें अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप
से राजनैतिक वरदहस्त प्राप्त है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि बैंकों के पुनगर्ठित ऋणों का
प्रतिशत मार्च 2013
तक बढ़कर छ: प्रतिशत तक पहुंच सकता है। साथ ही यह भी कहा गया कि
अदालती हस्तक्षेप, सुधार में विलंब, लागत
को उपभोक्ताओ पर डालने में देरी, कर से जुड़े मामलों में
अस्पष्टता से आर्थिक गतिविधियों के माहौल को खराब कर रहा है। सच तो यह है कि जिन
कारणों को बताया या गिनाया गया, उस दिशा में सरकार ने कभी कोई ठोस कदम उठाना तो
दूर बल्कि विचार ही नहीं किया गया, क्यों कि उन निहित स्वार्थ जुड़े हुए थे। अगर ये हालत बदस्तूर जारी रहते हैं तो वित्तीय घटा निरंतर बढ़ता ही
रहने वाला है और हालात कभी काबू में नहीं आ सकते। दूसरी ओर लघु एवं मध्यम
उद्यमों के प्रदर्शन के प्रभावित होने और कृषि क्षेत्र पर बने दबाव से बैंकों के
एनपीए में बढ़ोतरी के पुख्ता संकेत मिल रहे हैं।
कुछ समय पूर्व
देश की दो प्रमुख बैंकों के अधिकारियों द्वारा बैंक माफियाओं के साथ सांठगांठ को
लेकर दायर की गयी याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीबीआई को जांच के आदेश दिए
थे। याचिका में
आरोप लगाया गया था कि 'भारतीय स्टेट
बैंक’ और 'स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक’ के अधिकारियों ने एक साजिश के तहत गैर-निष्पादित
संपतियां बेहद कम दामों में बिल्डर माफिया को बेच दी। दिल्ली के एक
उद्योगपति और मेसर्स विशाल गोपाल लिमिटेड के निदेशक सरोज कुमार बगारिया ने अपनी
याचिका में कहा कि वर्ष 1999 में
भारतीय स्टेट बैंक ने उनकी फर्म से संपत्ति गिरवी रखकर उसे पांच करोड़ रुपए का लोन
दिया था। लोन
लेने के बाद फर्म घाटे में चली गयी और वह लोन चुकता नहीं कर सकी। भारतीय स्टेट
बैंक और स्टैंडर्ड चाटर्ड बैंक के कुछ अधिकारियों ने मिलकर उनकी संपति को
गैर-निष्पादित संपति घोषित कर दी और उसे बिल्डर माफिया को बहुत कम दामों में बेच
दिया। इसे
साजिश बताते हुए अदालत से दरख्वास्त की गयी थी कि वह उनकी शिकायत के आधार पर
सीबीआई और बैंक प्रतिभूतियां एवं धोखाधड़ी प्रकोष्ठ को प्राथमिकी दर्ज करने का
निर्देश दे। इस पर अदालत ने प्रसंज्ञान लिया।
बैंकों के नियम अब बहुत कड़े किये
जा रहे हैं और नये लोन व्यक्ति अथवा संस्था की नागरिक (साख) को देखकर दिए जा रहे हैं जबकि हकीक़त यह
है कि जिन लोगों पर बैंकों ने मनमाने ब्याज और हिडन चार्जेज लगाकर परेशां कर दिया
और जिन्होंने अपने खाते सैटलमेंट के आधार पर बैंक की रकम अदा करदी उन्हें अभी भी
सिविल रिपोर्ट में दोषी माना जा रहा है और न्य लोन नहीं दिया जा रहा। अनेक प्रकरणों में 5 से 10 साल पुराने मामलों में
सैटलमेंट के बावजूद उनकी सिविल साख को ख़राब रिपोर्ट के रूप में दर्ज किये हुए है
जबकि उन्हें इस रिपोर्ट से हटा जाना चाहिए। एक बार किसी की गलती हो गयी और उसने
बैंक से मामला सैटल कर लिया तो फिर भी उसे अपराधी या दोषी की श्रेणी में रखना कहां
तक उचित है। कई मामलों में बैंकों ने सैटलमेंट के बावजूद खाते जारी रखे और मंथली
स्टेटमेंट भेजते रहे और बिलिंग जरी राखी और नए सिरे सर लोगों को कर्जदार घोषित
किये रखा और उनमें बकाया निकलते रहे। ऐसे मामले तत्काल समाप्त आकर लोगों को सिविल
साख के दोष से मुक्त करने पर सरकार को विचार करना चाहिए। सरकार बेशक उन लोगों और
प्रतिष्ठानों पर कानूनी कार्यवाही करे जो बैंकों से कर्ज लेकर वापस लौटा नहीं रहे।
सरकार से यह बात भी छिपी नहीं है कि घोटालेबाज
लोग और प्रतिष्ठान नाम बदल करके भी वही सब कुछ कर रहे हैं और उन्हें भ्रष्ट
अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त है।
अतिथि
संपादक
फारूक
आफरीदी,
वरिष्ठ
लेखक एवं पत्रकार