सोमवार, 29 दिसंबर 2014

उच्च शिक्षा में चल रहे गोरखधंधे पर लगानी होगी लगाम



संपादकीय

उच्च शिक्षा में चल रहे गोरखधंधे पर लगानी होगी लगाम

       उच्च शिक्षा के क्षेत्र में देश भर में आजकल जो गोरखधंधा चल रहा है उससे जहां युवाओं के सपने चूर-चूर हो रहे हैं वहीं उनका सुनहरा भविष्य भी बर्बाद हो रहा है।अभिभावक छले जा रहे हैं। पैसे के बल पर डिग्रियाँ लेने और देने के इस खेल ने उच्च शिक्षा प्रणाली पर भी कई प्रश्न चिन्ह लगा दिये हैं। जबसे निजीकरण का दौर शुरू हुआ है, तब से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफे का व्यापार करने वाली बेशुमार दुकानें खुल गयी हैं।इससे शिक्षा की गुणवत्ता हाशिये पर चली गयी है। शिक्षण संस्थाओं के नाम पर इनके आका मोटी फ़ीसें वसूलने वाले केन्द्र बन गए हैं और शिक्षा की गुणवत्ता की बातें बेमानी हो गयी हैं। शिक्षा जैसे पवित्र मंदिरों में लूट का व्यापार ना केवल शर्मनाक बल्कि इसकी पवित्रता पर भी एक कलंक साबित हो रहा है। हाल ही एसओजी ने प्रदेश के एक बड़े शिक्षण संस्थान के शिक्षा महाघोटालों का खुलासा कियाहै जिसमें शिक्षण संस्थान के प्रमुख द्वारा दलालों के जरिये विद्यार्थी महज पंद्रह  दिनों के भीतर ग्रेजुएशन पूरी कर लेते हैं। इसके लिए महज पंद्रह  से  पच्चीस  हजार रुपए की राशि में इस तरह की डिग्री हासिल करना संभव है। गिरफ्त में आए आरोपियों से पूछताछ और एसओजी की प्रारंभिक जांच में यह तथ्य सामने आया है कि करीब आठ  हजार स्नातक, स्नातकोत्तर और विभिन्न कोर्सेज की फर्जी डिग्रियां बनाई गयी। कहा जा रहा है कि फर्जी डिग्री के बदले जो पैसा आता था, वह जिस खाते में जमा होता था, वह निजी यूनिवर्सिटी के मालिक ही हैंडल करते थे। एसओजी ने उस बैंक अकाउंट का रिकॉर्ड भी जब्त कर लिया है उसमें लाखों रुपए का ट्रांजेक्शन सामने आया है।
       राज्य के उच्च शिक्षामंत्री ने जोधपुर की एक निजी क्षेत्र की यूनिवर्सिटी के प्रमुख द्वारा फर्जी डिग्री बांटने के मामले के पर्दाफाश के बाद तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया है। उच्च शिक्षा सचिव की अध्यक्षता में गठित इस कमेटी में कॉलेज आयुक्त और संयुक्त निदेशक को सदस्य बनाया गया है। कमेटी पंद्रह दिन में अपनी रिपोर्ट देगी।फर्जी शिक्षण संस्थाओं के मालिक अपने लंबे राजनीतिक रसूख और समाज के प्रतिष्ठित लोगों से अच्छे सम्बन्धों के बल पर ही ऐसा कर पाते हैं और सेलेब्रेटीज़ के नामों को अपने पक्ष में भुनाते हैं। अमिताभ बच्चन और आशा भोंसले जैसी शख्सियतों को मानद डी-लिट की उपाधि प्रदान कर अपने पक्ष में कर लेते हैं। इस प्रकार के मामले कोई एक निजी यूनिवर्सिटी तक ही सीमित नहीं है बल्कि इनकी तादाद कई गुना है जो सरकार और देश की आंखों में निरंतर धूल झोंक रहे हैं। ऐसे लोग धन बटोरने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। फर्जी डिग्री बांटने के गोरखधंधे में ये मास्टरमाइंड होते हैं। बेशुमार दौलत कमाना ही इनका एक मात्र मकसद होता है और नैतिकता का इनके लिए कोई मूल्य नहीं है। ये अपना जीवन विलासितापूर्ण जीते हैं । इनके पास सामान्य ज्ञान रखने वाले शातिर दिमाग के एजेंटों की कमी नहीं जो हाथोंहाथ मालमाल होने की महत्वाकांक्षा पाले हुए होते हैं। ये हर महीने मोटी रकम पाते हैं।
       विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कुछ समय पूर्व देश के 11 विश्वविद्यालयों को फर्जी घोषित किया था लेकिन वर्तमान स्थिति में जांच कराई जाए तो आंकड़ा तीन अंकों  को पार कर जाएगा। आयोग ने देश के बिहार, दिल्ली, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडू,पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश में फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची जारी की थी। इनमें सर्वाधिक उत्तरप्रदेश में है। किसी हद तक आयोग भी ऐसे विश्वविद्यालयों को मान्यता देने के मामले में दोषी है। ऐसे लोगों के चरित्र, कामकाज आदि की पूर्व में पुलिस और प्रशासनिक जांच को भी खंगाला जाना चाहिए। गौर तलब है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 1953 में अस्तित्व में आया था। संसद के एक अधिनियम द्वारा इसे एक वैधानिक निकाय बनाया गया था। यह विश्वविद्यालय शिक्षा हेतु समन्वय, मानदंडों के निर्धारण और अनुरक्षण करने वाली राष्ट्रीय संस्था है । यह केंद्र एवं राज्य सरकारों तथा उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाओं के बीच समन्वयक संस्था के रूप में कार्य करता हैं।यूजीसी अधिनियम में यह प्रावधान है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग शिक्षा के संवर्द्धन और समन्वय हेतु तथा शिक्षण, परीक्षा एवं शोधन के क्षेत्र में सम्बंधित विश्वविद्यालयों के साथ विचार विमर्श करके जो कार्यवाही उचित समझे, कर सकता है। शिक्षण और अनुसंधान के साथ प्रसार को आयोग द्वारा शिक्षा के तीसरे आयाम के रूप में जोड़ा गया था। अपने कार्य को चलाने के उद्देश्य से आयोग अपने कोष से, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों को रखरखाव एवं विकास हेतु अनुदान आवंटन एवं वितरण करने, विश्वविद्यालय शिक्षा उन्नयन हेतु आवश्यक उपायों के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों तथा उच्च शिक्षा के संस्थानों को परामर्श देने और अधिनियम के अनरूप नियम एवं प्रक्रिया निर्धारण करने का कार्य कर सकता है। आयोग में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा भारत सरकार द्वारा नियुक्त 10 अन्य सदस्य होते हैं। सचिव इसके कार्यकारी अध्यक्ष होते हैं।देश में आयोग के क्षेत्रीय कार्यालय हैदराबाद, पुणे, भोपाल, कोलकाता, गुवाहाटी तथा बंगलूरू में हैं। अभी तक गाज़ियाबाद में स्थित उत्तर क्षेत्रीय कार्यालय अब यूजीसी मुखालय से उत्तर क्षेत्रीय महाविद्यालय ब्यूरो (एनआरसीबी) के रूप में कार्य कर रहा है।विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कुछ नए कदम उठाये हैं । जिनमे, उद्यमशीलता और ज्ञान आधारित उद्यमों को बढ़ावा देना, बौधिक संपदा अधिकारों का संरक्षण, भारतीय उच्च शिक्षा का संवर्द्धन, विदेशों में शिक्षा प्रशासकों के लिए प्रशिक्षण और विकास तथा व्यापक कंप्यूटरीकरण संबंधी उपाय शामिल हैं ।
        ऐसे विश्वविद्यालय, जो जाली घोषित किए जाते हैं, उनके फर्जी घोषित होने का पैमाना क्या रहता होगा, यह तो अलग बात है लेकिन इतना तो तय है कि अनैतिक रूप से धन कमाना एक बड़ा कारण है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इन विश्वविद्यालयों की डिग्री को मान्यता नहीं देता। आयोग उन विश्वविद्यालयों से पूरी तरह अपरिचित है जो भ्रष्ट तरीकों को अपनाते हुए चल रहे हैं क्योंकि आयोग के पास ऐसा कोई मैकेनिज़्म नहीं है कि तत्काल कोई कदम उठा सके।जांच की प्रक्रियाएं लंबी चलती हैं जब तक कई विद्यार्थियों का भविष्य अंधकार में जा चुका होता है। जब तक कोई शिकायत प्राप्त नहीं होती, सब कुछ ठीक चलता रहता है और शिकायतों की पूरी तरह जांच होकर नतीजे नहीं आ जाते तब तक छात्र-छात्राओं के साथ छल का व्यापार चलता रहता है। ऐसे में सख्त कानूनी प्रावधानों का होना नितांत आवश्यक है और सजा के प्रावधान भी कड़े बनाने होंगे। सभी विश्वविद्यालयों का निरीक्षण और नियमित जांच होती रहे कि वे सही दिशा में काम कर रहे हैं कि नहीं। विश्वविद्यालयों पर कड़ा अंकुश बना रहना जरूरी है।विश्वविद्यालयों का ध्यान इस बात पर केन्द्रित रहे कि शिक्षा की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं हो। जाली विश्वविद्यालयों का जाल ना फैले, इस दिशा में राज्य प्रशासन को निपटना होगा।   
-फारूक आफरीदी     

रविवार, 21 दिसंबर 2014

जन प्रतिनिधियों के आचरण पर उठते सवाल



संपादकीय

जन प्रतिनिधियों के आचरण पर उठते सवाल

जादी के सड़सठ सालों के बाद भी देश के जनप्रतिनिधियों के आचरण को लेकर सवाल उठना बहुत चिंताजनक है। यह चिन्ता तब और भी बढ़ जाती है जब लोकतन्त्र के मंदिर संसद एवं विधानसभाओं के लिए चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों के दुराचरणों के दृश्य देखने को मिलते हैं। कभी-कभी स्थितियां बहुत ही शर्मनाक रूप ले लेती हैं। ऐसे में जन प्रतिनिधियों पर तरस ही नहीं आता बल्कि जन आक्रोश सामने आता है। हाल ही प्रदेश में एक सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक ने शर्मसार करने वाला जो व्यवहार किया उसकी सर्वत्र आलोचना हुई है और पार्टी ने अपनी छवि बिगड़ने के भय से उसके विरुद्ध कार्यवाही भी की।  हालांकि पार्टी हाइकमान ने इसमें लीपापोती को नापसंद करने की बातें भी कही जा रही है । इसके साथ ही इन्हीं दिनों एक मंत्री दारा भी कुछ ऐसा ही व्यवहार करने और एक अन्य विधायक द्वारा अपने मतदाताओं को धमकाने के समाचार भी प्रकाश में आए हैं। एक समय में इसी पार्टी के वरिष्ठ मंत्री द्वारा सचिवालय कक्ष में एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार करने की जानकारी ने भी पार्टी की किरकिरी कराई थी।  
देश में लोकतंत्र की स्थापना के समय किसी ने शायद ही यह कल्पना होगी कि लोकतंत्र में हमारे अपने जनप्रतिधियों और उनके परिवार के सदस्यों का आचरण राजा-महाराजाओं और शहंशाहों से भी ज्यादा विवादित हो जायेगा।सत्तारूढ़ दलों में यह प्रवृति  कुछ ज्यादा ही देखने में आती है। ऐसे भी अनेक हादसे हुए हैं जब मंत्रियों या समकक्ष नेताओं के स्टाफ और ड्राइवरों के साथ स्वयं अथवा उनके परिजनों द्वारा बदतमीजी का व्यवहार किया गया।  जनता के प्रतिनिधि या जनसेवक कहलाने वाले हमारे जननेता जनता और सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ गुलामों और बंधुआ मजदूरों जैसा बदतर व्यवहार करते रहे हैं। सत्ता के मद में माँ-बहन तक की गालियां देना इनका शगल हो गया है।
जनप्रतिनिधियों का निर्वाचन जन सेवा के लिए किया जाता है लेकिन जनप्रतिनिधि अपने आपको एक विशेष उच्च वर्ग का समझने लगते हैं । ये आचरण करते समय वे ये भी भूल जाते हैं कि उन्हें हर महीने जो बड़े वेतन भत्ते और आवास, परिवहन, फोन- मोबाइल, कंप्यूटर, पीए आदि की जो भारी भरकम सुविधाएं मिल रही हैं, उसकी सारी की सारी राशि आम लोगों के खून-पसीने की कमाई से करों के रूप में वसूली जाती है। ऐसे में जनता के पाई-पाई का हिसाब रखने की ज़िम्मेदारी बनती है। साथ ही इन जन प्रतिनिधियों के आचरण पर अंकुश और व्यवहार के भौंडे प्रदर्शन पर अंकुश जरूरी है।दलीय समर्थन के बल पर अपनी  वाणी, व्यवहार और बाहुबल का बेजा इस्तेमाल किसी भी सूरत में स्वीकार्य न हो और ना ही उसे प्रोत्साहन दिया जाए। अक्सर ऐसा देखा जाता है जब घटनायें सामने आती हैं तो उनके समर्थन में पार्टी या पार्टी के अनेक लोग एक साथ खड़े दिखाई देते हैं, जो एक प्रकार से अनैतिकता को बढ़ावा जैसा होता है। प्रजातन्त्र में मीडिया की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया के कारण ही अधिकांश बड़े मामले प्रकाश में आ पाते हैं वरना ऐसी सामंतशाही के प्रदर्शन का पता ही नहीं चल पाता। कभी कभी मीडिया भी ट्रायल शुरू कर देता है और सही–गलत का निर्णय सुना देता है, जो गलत है। मीडिया को अपनी भूमिका बताने की जरूरत नहीं, वह अपनी मर्यादा भली-भांति जानता है।
जनप्रतिनिधियों के व्यवहार पर भी उनका संयम आजकल रीतने लगा है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के एक विधान परिषद सदस्य की चिट्ठी मीडिया में सामने आई जिसने अपने भतीजे की गाड़ी को सड़कों पर बेखौफ दौड़ने देने का हुकम जारी किया ताकि टोलकर्मी, पुलिस और आरटीओ भी रोकने का साहस न कर सकें । इसी तरह विगत दिनों फैजाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग स्थित टोल प्लाजा पर एक दबंग पार्टी नेता के लोगों ने टैक्स मांगने पर टोलकर्मियों को किस बेरहमी से पीटा, यह टीवी और अखबारों में सबने देखा-पढ़ा, लेकिन हुआ कुछ नहीं । ऐसे में उन लोगों का मनोबल और बढ़ जाता है। सरकारें अपने काम-काज से ही लोगों को संदेश देती हैं लेकिन दोषियों पर कार्रवाई न होने का मतलब साफ है कि ऐसे कृत्य करने वाले नेताओं का कुछ नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधि कानून व्यवस्था का उचित सम्मान करते दिखेंगे तो आम लोग भी उनका अनुसरण करेंगे लेकिन यदि सरकार के लोग ही मर्यादा का पालन करते नहीं दिखाई देते तो आम जन में उसकी विपरीत प्रतिक्रिया होनी ही है। देखने में आया है ऐसे मामलों में  कर्मचारी और अधिकारी स्तर पर तो तेजी से कार्यवाही हो जाती है लेकिन जन प्रतिनिधियों के मामलों में आनाकानी ही बरती जाती है । इसका एक ताजा उदाहरण यह है कि बिहार के  मधेपुरा जिले के मुरहो पीएचसी में लेखापाल के रूप में पदस्थापित कर्मचारी को नौकरी से हाथ धोना पड़ गया। उस पर ताजा आरोप बिजली विभाग के कनिष्ठ अभियंता और कार्यपालक अभियंता को डराने-धमकाने का आरोप था जो जिलाधिकारी के द्वारा कराये गए जांच में साबित पाए गए। ऐसे उदाहरण हर राज्य में मिल जाएंगे।
जनप्रतिनिधियों के दुराचरण के कारण भारतीय लोकतंत्र के प्रति लोगों की बढ़ती अरुचि बढ़ती जा रही है जो,चिंताजनक है। परोक्ष रूप से इसके लिए जनप्रतिनिधियों का आचरण ही जिम्मेदार है। यह आत्म विश्लेषण का समय है कि आखिर हम अपने आचरण से अपने क्षेत्र के मतदाताओं समेत जनता को क्या संदेश दे रहे हैं। जनप्रतिनिधियों को अपने कर्तव्य का निर्वहन  ईमानदारी और मर्यादा के साथ करना ही चाहिए। राजनीति सेवा का एक माध्यम है, लेकिन हाल के वर्षों में सेवा के स्थान पर यह शक्ति के बेजा प्रदर्शन का माध्यम बन रहा है जिससे जन प्रतिनिधियों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन देखा जा सकता है।
दूसरी ओर देश में कुछ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को इस बात का  भ्रम हो गया है कि कोई मुद्दा विशेष प्रभावी ढंग से उठाने के लिए सदन की कार्यवाही को बाधित करना आवश्यक है।कार्यवाही को बाधित करते समय कई बार वे मर्यादा लांघ जाते हैं। इस प्रवृत्ति से वे अपने देश से छल कर रहे होते हैं जिसने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए अपना जनप्रतिनिधि चुना है। जनप्रतिनिधियों को सिर्फ इस बात की चिंता करना चाहिए कि वह समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति की तकलीफों और समस्याओं को कैसे दूर सकते हैं। देखने में आया है कि राजनैतिक दल अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए ऐसे आपराधिक प्रवृति वाले दागी लोगों को टिकट दे देते हैं जो बाहुबल और धनबल पर जीत सकने की क्षमता रखते हैं,जिनका आम लोगों से कोई वास्ता नहीं होता। लोकसभा और विधानसभाओं में दागी लोगों की भागीदारी भी चिंताजनक है। ऐसे सदस्यों से लोकतांत्रिक और परिपक्व राजनीतिक व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। समय रहते सभी राजनीतिक दलों को इस पर देश हित में गंभीर चिंतन कर फैसले लेने होंगे।
 पिछले कुछ वर्षों से संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधियों के हंगामा खड़ा करने, सदन की कार्यवाही में बाधित करने या फिर अपनी हरकतों से सदन की मर्यादा को कलंकित करने की घटनाएं बढ़ी हैं।दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि संसद या अमर्यादित आचरण करने वाले सांसदों-विधायकों के खिलाफ न तो उनकी पार्टियां कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करती हैं और न सदन की तरफ से कोई सख्त कदम उठाए जाते हैं। जनप्रतिनिधियों का आचरण अपनी जनता के बीच एक नजीर होना चाहिए।जनप्रतिनिधियों के आचरण में शालीनता, सहिष्णुता, विनम्रता होनी ही चाहिए, लेकिन विडंबना है कि खुद हमारे नुमाइंदों को इस बात की फिक्र नहीं है कि उनके बर्ताव से जनता के बीच क्या संदेश जा रहा है। -फारूक आफरीदी

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

विलुप्त हो रही सैंकड़ों भाषाएं कौन बचाएगा !



संपादकीय
विलुप्त हो रही सैंकड़ों भाषाएं कौन बचाएगा !
       दुनियाभर में संरक्षण के अभाव और अंग्रेजी के वर्चस्व से सैंकड़ों भाषाएँ समाप्ति के कगार पर हैं और ऐसे देशों की सूची में भारत में स्थिति सर्वाधिक चिंताजनक है जहां 196 भाषाएं लुप्त होने को हैं।संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, दुनियाभर में ऐसी सैंकड़ों भाषाएं हैं जो विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गईं हैं और भारत के बाद दूसरे नंबर पर अमेरिका में स्थिति काफी चिंताजनक है जहां 192 भाषाएं दम तोड़ती नजर आ रही हैं।विश्व काई द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, भाषाएं आधुनिकीकरण के दौर में प्रजातियों की तरह विलुप्त होती जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार, दुनियाभर में 6900 भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन इनमें से 2500 भाषाओं को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची में रखा गया है, जो पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी। अगर संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2001 में किए गए अध्ययन से इसकी तुलना की जाए तो पिछले एक दशक में बदलाव काफी तेजी से हुआ है। उस समय विलुप्त प्राय: भाषाओं की संख्या मात्र नौ सौ थी लेकिन यह गंभीर चिंता का विषय है कि तमाम देशों में इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
       भारत और अमेरिका के बाद इस सूची में इंडोनेशिया का नाम आता है जहाँ 147 भाषाओं का आने वाले दिनों में कोई नामलेवा नहीं रहेगा।भाषाओं के कमजोर पड़कर दम तोड़ने की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर में 199  भाषाएँ ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है। इनमें कैरेम भी एक ऐसी ही भाषा है जिसे उक्रेन में मात्र छह लोग बोलते हैं।ओकलाहामा में विचिता भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग ही बोलते हैं। इंडोनेशिया में इसी प्रकार लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं। 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या 150 से कम है।भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि भाषाएं किसी भी संस्कृति का आईना होती हैं और एक भाषा की समाप्ति का अर्थ है कि एक पूरी सभ्यता और संस्कृति का नष्ट होना।दुनियाभर में भाषाओं की इसी स्थिति के कारण संयुक्त राष्ट्र ने 1990 के दशक में 21फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी।गौरतलब है कि बांग्लादेश में 1952 में भाषा को लेकर एक आंदोलन चला था जिसमें हजारों लोगों ने अपनी जान दे दी थी। इस आंदोलन के बारे में कहा जाता है कि इसी से बांग्लादेश की आजादी के आंदोलन की नींव पड़ी थी।वैश्विक स्तर पर पिछले 50 वर्षों में अंग्रेजी भाषियों के मुक़ाबले हिन्दी भाषियों की संख्या तेजी से बढ़ी है।मगर दुनिया भर में कमजोर समुदायों की भाषाओं पर विलुप्ति का संकट अधिक गहराया है।पचास वर्ष पूर्व हिन्दी भाषी 26 करोड़ और अंग्रेजीभाषी 32 करोड़ थे। अब हिन्दी भाषी 42 करोड़ हैं और अंग्रेजी भाषी लोगों की संख्या 48 करोड़ हैं। ये वैश्विक आंकड़े हैं।ताजा सूचनाओं के अनुसार भारत में 197 भाषाएँ, अमेरिका में 191, ब्राज़ील में 190, इन्डोनेशिया में 146 और चीन में 144 भाषाएं संकटग्रस्त हैं। पीएसएलआई, यूनेस्को के अनुसार देशी भाषाओं पर गहरा खतरा मंडरा रहा है। हमारे यहां जनजातीय समुदायों की भाषाएं लुप्त हुई हैं, पर अंग्रेजी के वर्चस्व का खतरा अन्य भाषाओं पर भी मंडरा रहा है। हिंदीभाषियों की संख्या जहां आबादी बढ्ने के कारण बढ़ी है, वहीं अँग्रेजी ज्ञान, रोजगार और इन्टरनेट की भाषा होने के कारण फल-फूल रही है।
       एक भाषाविज्ञानी के अनुमान के अनुसार हर दो सप्ताह में एक भाषा विलुप्त हो जाती है। भाषा को बचाने का मतलब है पृथ्वी के हर मनुष्य को मिले अधिकारों की रक्षा के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों को अपना समर्थन देना। आज भी हज़ारों आदिवासियों को विकास के नाम पर बेघर किया जा रहा है। कुछ लोग यह समझते हैं कि भाषाओं को बचाना कोरी भावुकता है जबकि उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि विलुप्त हो रही भाषाओं में जो ज्ञान संचित है वह आधुनिक विज्ञान की पुस्तकों में भी नहीं मिलेगा। उदाहरण के लिए, बोलीविया के कालावाया समुदाय में कुछ परिवार शताब्दियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को एक गुप्त भाषा में औषधीय पौधों से संबंधित जानकारी प्रदान करते आए हैं। इस परंपरागत ज्ञान के महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि विभिन्न देशों से अनेक लोग अपने रोग दूर करने के लिए इस गुप्त भाषा को जानने वाले लोगों के पास आते हैं। भाषाविद ग्रेगरी एंडरसन जब इस भाषा पर शोध करने के लिए बोलीविया गए थे तब एक दिन उनकी तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई तो उनकी जान किसी आधुनिक दवा से नहीं बल्कि औषधीय चाय से बची थी। प्रकृति के साहचर्य में रहने वाले लोगों ने हज़ारों सालों में संचित इस ज्ञान को सहेजकर रखा है। विज्ञान के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया है उसका खामियाज़ा आज सभी को भुगतना पड़ रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उपभोग करने से बेहतर है कि हम उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल इस तरह करें जिससे प्रकृति पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़े।
       यहां ज्ञातव्य है कि प्रयोगकर्ताओं की संख्या के आधार पर  1952 में हिंदी विश्व में पांचवे स्थान पर थी। वर्ष 1980 के आसपास वह चीनी और अंग्रेजी क़े बाद तीसरे स्थान पर आई। वर्ष 1991 की जनगणना में हिंदी को मातृभाषा घोषित करने वालों की संख्या के आधार पर पाया गया कि यह पूरे विश्व में अंग्रेजी भाषियों की संख्या से अधिक है। सन् 1998 में यूनेस्को प्रश्नावली को दिए गए जवाब में भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन नेसंयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएं एवं हिन्दीशीर्षक से जो विस्तृत आलेख भेजा उसके बाद विश्व स्तर पर यह स्वीकृत हो चुका है कि वाचकों की संख्या के आधार पर चीनी भाषा के बाद हिन्दी का विश्व में दूसरा स्थान है। सन 1999 में मशीन ट्रांसलेशन समिट' अर्थात् यांत्रिक अनुवादनामक संगोष्ठी में टोकियो विश्वविद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने भाषाई आंकड़े पेश करके सिद्ध किया कि विश्व में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिंदी का दूसरा और अंग्रेजी तीसरे स्थान पर है, किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा काफी सीमित है। डॉ. जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने अपने भाषा शोध अध्ययन 2005 में हिन्दी वाचकों की संख्या एक अरब दो करोड़ पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन घोषित की है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या मात्र नब्बे करोड़ चार लाख छह हजार छह सौ चौदह बताया है। कहना होगा कि हालात नहीं बदले तो इस शताब्दी के अंत तक विश्‍व की लगभग 7000 भाषाओं में से आधी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी। एक चिंताजनक तथ्य यह है कि हर दो सप्ताह में संसार की एक भाषा दम तोड़ देती है। हर भाषा में ज्ञान का खज़ाना छिपा है। जंगली इलाके में केवल दो सौ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में भी पर्यावरण से संबंधित ऐसी जानकारी होती है जो आधुनिक विज्ञान की भाषा अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिए, अमेज़न के जंगलों में रहने वाली वायांपी जनजाति विभिन्न पक्षियों के व्यवहारों से संबंधित जानकारी गीतों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती है। ऐसे में हज़ारों सालों में संचित ज्ञान को बचाने के लिए विलुप्त हो रही भाषाओं को बचाना होगा। 
 -फारूक आफरीदी