संपादकीय
सूचना के अधिकार कानून के बुरे दिन
देश
में आम आदमी को जन हित की योजनाओं और कार्यक्रमों के बारे में जानने या सूचना पाने
का अधिकार देने के लिये दस साल पहले यूपीए सरकार के दौरान संसद ने जो कानून पारित
किया था, वह इन दिनों बुरे दौर से गुजर रहा है। आज हालात ये हैं कि सूचना
के अधिकार के तहत बार-बार मांगने पर भी सरकारी विभागों से सूचनाएं नहीं मिल पाती या
अधिकारी आधी-अधूरी सूचनाएं देकर जैसे-तैसे अपना पिंड छुड़ाकर इतिश्री कर लेते हैं। क़ानून
बनने के बाद राज्यों में सूचना आयोग तो बना दिये गए हैं लेकिन उनमें पर्याप्त
संख्या में सूचना आयुक्त और सक्षम कार्यकारी स्टाफ सेवारत नहीं हैं। इन आयोगों के
सुचारु संचालन की ज़िम्मेदारी मूलत: राज्य सरकारों की है,
लेकिन यह विषय जैसे उनकी प्राथमिकता सूची में ही नहीं है। सामाजिक और स्वयंसेवी
संगठन इस संस्था की सक्रियता बनाए रखने को लेकर निरंतर अदालतों के दरवाजे खटखटाते रहते
हैं तब भी सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। ऐसा लगता है कि सूचना का अधिकार
सरकार के लिए गले की घंटी और उस पर परेशानी के बादल जैसे हैं।
देश में सूचना के
अधिकार कानून को सबसे पहले लागू करने में राजस्थान प्रदेश अग्रणी रहा है,लेकिन यहां
मुख्य आयुक्त के अलावा सिर्फ एक सूचना आयुक्त काम कर रहा है। राज्य सूचना आयोग में
आने वाली दूसरी अपील के लगभग 16 हजार आवेदन विचाराधीन हो गए
हैं। अपील की सुनवाई के लिए लोगों को जनवरी 2016 तक की तारीख
दी जा रही है। ऐसे में इस कानून की क्या उपयोगिता और प्रासंगिकता रह जाती है।सूचना
आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में यहां हालत बहुत खराब रही है। राजस्थान में
सूचनाएं मांगने वालों का जो फ़्लो बना हुआ है और बढ़ती जागरूकता के कारण जितने
प्रकरण आ रहे हैं, उनके निपटारे और पेंडिंग अपीलों की सुनवाई
कर फैसलों के लिए राज्य में दस सूचना आयुक्त हो सकते हैं। लगभग तीन चार साल से
यहां एक ही सूचना आयुक्त टी. श्रीनिवासन काम कर रहे हैं। अब एक सूचना आयुक्त और
लगाया गया है।
सूचना आयुक्तों की
नियुक्ति के बारे में सुप्रीम कोर्ट के नए निर्देशों के कारण उन्होंने छह माह से
ज्यादा समय तक काम नहीं किया। इससे अपीलों की संख्या बहुत बढ़ गई। राज्य सरकार को
जनहित में आयोग में जरूरत के अनुरूप आयुक्तों की संख्या बढ़ाने पर विचार कर निर्णय
लेना चाहिए।दरअसल सूचना के अधिकार कानून के तहत पहली अपील में तो एक माह में
सुनवाई का प्रावधान है,लेकिन दूसरी अपील जो सूचना आयुक्त के यहां होती है,
वहां सुनवाई के लिए कोई निश्चित समय सीमा नहीं है।ऐसे में अपीलों की
सुनवाई पर डेढ़ साल तक का समय दिया जा रहा है। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में कोई
बड़ी समस्या भी नहीं है,क्योंकि मुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष और एक कैबिनेट
मंत्री की समिति इनका चयन करती है।
यहां
यहकहना प्रासंगिक होगा कि सूचना का अधिकार कानून एक बड़ी पहल थी।इस कानून के लागू
होने के बाद महानरेगा सहित कई बड़े मामलों में अनियमितता और भ्रष्टाचार उजागर हुए।लेकिन,दस सालों के बाद सूचना के अधिकार की स्थिति आज एक
प्रकार तरह से चिंतनीय होती जा रही है।विकास,निवेश,स्वच्छता अभियानों आदि की आंधी में सूचना का अधिकार कहीं खो गया
है।केन्द्र या राज्य सरकारो के एजेंडे में यह कहीं नजर नहीं आता। इसकी राह का सबसे
बड़ी बाधा यह है कि सूचना आयोगों में लंबित मामलों की तादाद उतरोत्तर बढ़ती जा रही
है। कई अपीलों के निपटारे में दो साल से तीन साल या इससे भी ज्यादा समय लगना आम
बात है, जिससे सूचना के अधिकार कानून के अप्रासंगिक हो जाने
की स्थिति पैदा हो गयी है।
राष्ट्रीय
सूचना आयोग में ही पिछले साल अगस्त तक सात हजार छह सौ से अधिक मामले विचाराधीन थे।नवंबर
तक इनकी तादाद बढ़ कर दस हजार से ऊपर पहुंच गई।लंबित मामलों और पदों के रिक्त रहने
की समस्या राष्ट्रीय सूचना आयोग तक ही सीमित नहीं है।राज्यों में हालात और खराब
दिखाई देते हैं।आयुक्तों के पद समय से नहीं भरे जाते, तो इसकी खासकर दो वजहें
हैं। एक तो यह कि सरकारों की दिलचस्पी इसमें नहीं होती कि आयोग अपनी पूरी क्षमता
से काम करें और दूसरे, वे अपने चहेतों को सूचना आयुक्त बनाने
के फेर में रहती हैं। सूचना आयोगों का गठन इसलिए किया गया था कि अगर प्रशासनिक
अधिकारी निर्धारित समय में मांगी गई सूचना देने से मना करें तो आगे अपील की जा सके,लेकिन अगर अपील पर सुनवाई के लिए बरसों इंतजार करना पड़े,तो इस क़ानून के इस्तेमाल को निरर्थक साबित करने जैसा ही व्यवहार है।
सूचना
देने के मामलों में लापरवाही का एक बड़ा कारण यह है कि सूचना देने से इनकार करने या
आनाकानी करने वाले अधिकारियों में अभी यह भय नहीं है कि वे दंडित किए जा सकते हैं।
छोटे-मोटे दंड से तो वे घबराते ही नहीं, अलबत्ता जेल जाने से थोड़ा घबराते हैं क्योंकि इसमें उनकी नौकरी जाने का
खतरा मौजूद रहता है। यों सूचना के अधिकार कानून के तहत दंडात्मक कार्यवाई का
प्रावधान है, परंतु कई अध्ययन बताते हैं कि ऐसे मामलों को अंगुलियों
पर गिना जा सकता है,जिनमें इस प्रावधान का प्रयोग हुआ हो।बहरहाल,इस कानून को भ्रष्टाचार से लड़ने का एक कारगर हथियार बनाए रखना और बचाना आवश्यक
है। इसके लिए जरूरी है कि सूचना आयोगों की शक्ति और संसाधन दोनों को बढ़ाया जाए।अपराध
करने,इन्हे बढ़ावा देने और अनियमितता बरतने वालों के मन में
भय पैदा हो।