मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

भारतीय नागरिकता की पहचान का संकट

संपादकीय
भारतीय नागरिकता की पहचान का संकट
आजादी के 68 साल बीत गए लेकिन आज भी भारतीय नागरिक के पास ऐसा कोई एक सर्वमान्य दस्तावेज़ नहीं है जिसके आधार पर यह सुनिश्चित  किया जा सके किवह एक दस्तावेज़ मानी है। कहने को आधार कार्ड भी है, राशन कार्ड भी है, पैन कार्ड भी है और पासपोर्ट भी है, जो नागरिक के भारतीय होने का सबूत देते हैं लेकिन एक कोई दस्तावेज़ नहीं जो सभी की पूर्ति करता हो। यह एक विडम्बना ही कही जाएगी कि ऐसा कोई एक दस्तावेज़ अभी भी विकसित नहीं हो पाया है जिससे  नागरिकों को इस परेशानी से छुटकारा मिल सके। सरकार आगामी दिनों में ऐसे कदम उठाने जा रही है जिससे अब पैन कार्ड मिलने में अधिक समय नहीं लगेगा। कहा जा रहा है कि सरकार के इस कदम से आनलाइन आवेदन करने पर सिर्फ 48 घंटे में यानि दो दिनों में पैन कार्ड बनकर लोगों के घर पहुंच जाएगा। सरकार ऐसी व्यवस्था करने जा रही है जिसके तहत आनलाइन पैन कार्ड पाने में लगने वाला समय औसतन पंद्रह दिन से घटकर दो दिन रह जाएगा। यह भी कहा जा रहा  है कि सरकार इसकी औपचारिक घोषणा जल्दी ही कर देगी।बैंक अकाउंट खोलने के लिए आधार कार्ड पर्याप्त नहीं है। बिजली,पानी,गैस,टेलीफोन, मोबाइल कनेक्शन के लिए भी विभागों की अलग अलग शर्ते हैं। कोई एक तो ऐसा दस्तावेज़ हो जो नागरिकों को इन झंझटों से मुक्ति दिलाये। राशन कार्ड पर सवाल उठाए जाते हैं, पैन कार्ड, इलेक्शन आईडी कार्ड पर सवाल उठाए जाए हैं। एक साधारण आदमी के लिए इनमें से कोई भी कार्ड बनवाना आसान नहीं है।एक बार अगर कोई कार्ड बन गया और ऊसमें नाम, पिता अथवा पति का नाम, पता, जन्म तिथि आदि मे कोई त्रुटि रह जायी है तो उस कार्ड की वैधता ही समाप्त हो जाती है। एक गलती भी रह जाए तो पासपोर्ट नहीं बन पाता। पासपोर्ट सबसे संवेदनशील दस्तावेज़ होता है, जिस में एक गलती बहुत भरी पड़ सकती है। आज विज्ञान का युग है और अधहर ऐसा कार्ड एक ऐसा दस्तावेज़ हो सकता है जिसमें इंसान की अंगुलियों, अंगूठा, आँखों की पुतलियों से लेकर उसका समस्त परिचय होता है।इसमें माता-पिता, अभिभावक सभी भाई-बहनों के साथ सबके रक्त समूह को भी इसका हिस्सा बना दिया जाए तो यह एक पूर्ण दस्तावेज़ हो सकता है। इसके बनाने पर सरकार अब तक करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है, लेकिन आज भी अनिवार्यता और मान्यता नहीं बन पायी है। इस पहचान को कब तक अधरझूल में अटकाए रखा जाएगा। जिस सरकार ने चुनाव से पहले आधार कार्ड की वैधता पर सवाल खड़े किए थे वही सरकार अब इसे अपना रही है लेकिन इसकी खामियों को दूर करने के उपोय अभी तक नहीं किए गए है। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं है कि वहाँ की नागरिकता के लिए चार पाँच दस्तावेज़ दिखाने पड़टे हों। फिर इस मामले में भारत कब तक पिछड़ा रहेगा !    
 
देश में पैन कार्ड बनवाने के लिए अभी दो एजेंसियां एनएसडीएल और यूटीआइ टेक्नोलाजी सविर्सेज काम करती हैं । दोनों एजेंसियों के पोर्टल पर पैन कार्ड बनवाने के लिए आनलाइन आवेदन किया जा सकता है। पैन कार्ड बनवाने का काम आसान बनाने के लिए नियम आसान बनाने का काम  सरकार ने शुरू कर दिया है। इसके तहत सरकार ने घोषणा की थी कि अब केवल आधार कार्ड या वोटर कार्ड ही पैन के लिए पर्याप्त दस्तावेज होगा। अभी तक लोगों को अपनी जन्मतिथि, पहचान और आवास की पुष्टि करने के लिए तीन-तीन दस्तावेज देने होते थे।
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसी साल के बजट में घोषणा की थी कि अब सभी ऊंची कीमत वाले लेनदेन में लोगों को पैन संख्या देना अनिवार्य होगा। साथ ही काले धन की रोकथाम के लिए सरकार ने सभी तरह के प्रोपर्टी और सोना खऱीदने के लिए होने वाले लेनदेन में भी पैन कार्ड को अनिवार्य बनाने का ऐलान किया था। ऐसा होने के बाद पैन कार्ड बनने में लगने वाले समय को लेकर भी लोगों की काफी शिकायतें सरकार को मिल रही थीं। उसे देखते हुए ही सरकार ने 48 घंटे में पैन कार्ड बना कर लोगों तक पहुंचाने का फैसला किया है। गौर तलब है कि चुनाव से पहले सरकार ने आम जनता को तोहफ़ा देते हुए सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या नौ से बढ़ाकर 12 कर दी थी। साथ ही गैस पर दी जाने वाली सब्सिडी को आधार कार्ड के ज़रिए बैंक में ट्रांसफ़र करने की योजना पर फ़िलहाल रोक लगा दी गई है। देश में आज भी पर्याप्त संख्या में लोगों के आधार कार्ड नहीं बन पाये है। तर्क ये है कि इस प्रक्रिया में कुछ तकनीकी मुद्दे हैं जिनसे जूझ़ा जा रहा है। सरकार पहले ही आधार कार्ड की महत्वाकांक्षी योजना के मद् में साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। आधार कार्ड से जुड़े मुद्दों पर शुरुआत से ही तमाम सवाल उठते रहे हैं। कोई इसे निजता में सरकारी हस्तक्षेप मानता है तो इसके तमाम फ़ायदे गिनाता है। इस यूनीक आइडेंटिफ़िकेशन नंबर की उपयोगिता पर आज भी प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है।
एक तरफ केंद्र सरकार की बहुद्देश्यीय योजना के तहत देशभर में बनाए जा रहे आधार कार्ड की उपयोगिता का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। केंद्र सरकार की ओर से सरकारी नौकरी, छात्रवृत्ति, फेलोशिप और पासपोर्ट के लिए अनिवार्य किए गए आधार कार्ड का दायरा बढ़ा कर अब इसे पैनकार्ड बनवाने के लिए भी आवश्यक कर दिया गया है।आधार कार्ड की उपयोगिता लगातार बढ़ने के कारण केंद्र सरकार के निर्देशों पर अब वेबसाइट से भी आधार डाउनलोड करने की सुविधा प्रदान की जा चुकी है। इसके लिए सिर्फ नामांकन के समय मिली रसीद की ऑन लाइन जानकारी देनी होगी।केंद्र सरकार ने ईआधार डॉट यूआईडीएआई डॉट जीओवी डॉट इन पर कार्ड को डाउनलोड करने की व्यवस्था की है।  कहने को तो शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ जिलास्तर पर सुविधा केंद्र के अलावा तहसील स्तर पर सरकार द्वारा संचालित कॉमन सर्विस सेंटर में भी नाममात्र के शुल्क पर आधार कार्ड डाउन लोड करने की सुविधा मुहैया कराई जा रही है,लेकिन यह योजना कितनी कारगर सिद्ध हो रही है, इसका कोई आकलन नहीं कराया जा रहा है। अनेक लोगों के आधार कार्ड तो बने हुए हैं किन्तु स्थान परिवर्तन के कारण वे संशोधन की मांग करते हैं जो कि कोई आसान काम नहीं है। जिस प्रकार अभियान चलाकर वोटर आईडी कार्ड बनाए जाते हैं और उनमें संशोधन के लिए नियमित रूप से शिविर लगाए जाते हैं वैसे ही आधार कार्ड बनवाने और उनमें संशोधन के लिए मोहल्ले और वार्डवार  शिविरों का आयोजन करने की जरूरत है। इस दिशा में ध्यान देने की जरूरत है। यदि इन सभी कार्यों के लिए देश में एक नागरिकता विभाग बन सके तो और भी बेहतर होगा जिसमें इससे जुड़ी सभी समस्याओं का समाधान किया जा सके। इसकी सखटें सभी जिला तहसील ब्लाक स्तर पर हो। इस प्रकार का विभाग पर्याप्त स्टाफ के साथ स्वतंत्र रूप से अपना काम अंजाम दे सकता है । इस विभाग में ही सभी प्रकार के संशोधन संबंधी कार्य भी नियमित रूप से रूप से किए जा सकते हैं। इससे लोगों को भी अलग अलग विभागों के चक्कर काटने से छुटकारा मिल जाएगा।
फारूक आफरीदी
अतिथि संपादक,
दैनिक राष्ट्रदूत
फ़ारूक आफरीदी

   

वृद्धों को स्वस्थ और खुशहाल जीवन कैसे मिले !

संपादकीय
वृद्धों को स्वस्थ और खुशहाल जीवन कैसे मिले !
देश के वृद्धों का ख्याल रखने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय एम्स, नई दिल्ली और चेन्नई स्थित मद्रास मेडिकल कालेज में अत्याधुनिक नेशनल सेंटर फॉर एजिंग स्थापित करने की योजना बना रहा है। अच्छी गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराने के उद्देश्य से देश के मेडिकल कालेजों में वृद्धों के लिए 12 क्षेत्रीय सेंटर भी स्थापित किए गए हैं, जिनमें 8 सेंटर काम कर रहे हैं। दावा तो यह भी किया गया है कि इन सेंटर्स पर बुढ़ापा संबंधी सभी समस्याओं का विशेषज्ञों द्वारा समाधान किया जा सकेगा। वे घर में देखभाल संबंधी सामान्य नियमों का विकास करेंगे और विशेषज्ञों को प्रशिक्षण देने के साथ वृद्धों की देखभाल के लिए प्रोटोकोल भी तैयार करेंगे। गौरतलब है कि वर्तमान में देश में वृद्धों के लिए कोई विशेषज्ञ सेवा उपलब्ध नहीं है। यह भी एक तथ्य है कि पाँच साल पहले इस दिशा में चिकित्सा विशेषज्ञों की कॉन्फ्रेंस में इस विषय पर वाराणसी में गहन विचार विमर्श हुआ था और उसमें की गई सिफ़ारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया या फिर अब साकार की आँख खुली है।  सरकार का यह कदम देर आयद दुरुस्त आयद जैसा है, लेकिन इसे गंभीरता के साथ लागू किया जाए तभी बात बनेगी अन्यथा यह भी एक घोषणा भर ही रह जाएगी।

भारत के वृद्ध पुरुषों की दो-तिहाई आबादी और वृद्ध महिलाओं की 90-95 फीसदी आबादी निरक्षर है और उनकी बड़ी संख्या, विशेषकर महिलाएं अकेली है। भारत में वृद्धजन की जनसंख्या में सतत वृद्धि हो रही है। वृद्ध व्यक्तियों की संख्या 1959 में 1 करोड़ 98 लाख थी और अनुमानों से संकेत मिलते हैं कि भारत में 60 वर्ष से अधिक उम्र वालों की संख्या 2030 में बढ़कर 19 करोड़ 80 लाख हो जाएगी। जीवन की अनुमानित आयु, वर्ष 1947 में करीब 29 वर्ष थी, जो कई गुना बढ़कर अब करीब 63 वर्ष पहुँच गयी है। केंद्र सरकार ने वृद्धों के लिए राष्ट्रीय वृद्धजन नीति 1999 में घोषित की थी, जिसमें उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के साथ उनकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सरकारी सहायता की परिकल्पना की गई थी। राष्ट्रीय वृद्धजन नीति के तहत वृद्धजनों को वित्तीय और खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, आश्रय, इसके साथ ही वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और उनका कल्याण सुनिश्चित करने के लिए अधिनियम बनाया गया था। इसमें बच्चों या सम्बंधियों द्वारा वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण को अनिवार्य करने तथा न्यायाधिकरणों के माध्यम से न्यायोचित बनाने की व्यवस्था हैबेसहारा वरिष्ठ नागरिकों के लिए वृद्धाश्रमों की स्थापना करना भी सरकार की योजना में शामिल है। संविधान की धारा 1(3) के अनुसार, अधिनियम को अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा लागू किया जाना है। इन प्रावधानों को कागजी दस्तावेजों में दर्ज प्रावधानों को जब तक धरातल पर नहीं लाया जाता तब तक सब बेमानी है। सरकार वृद्धाश्रम बनाने की बातें भी करती रही लेकिन उसे धरातल पर नहीं उतार पायी। घोषणाएँ करके वाहवाही लूटना अलग बात है। यह काम यदि निजी क्षेत्रों को सौंप दिया जाता और हर दृष्टि से प्रोत्साहन दिया जाता तो आज तस्वीर कुछ अलग ही होती।

भारतीय समाज के परम्परागत मानक और मूल्य बड़ों के प्रति सदैव आदर दर्शाने और उनकी देखभाल करने पर जोर देते थे, लेकिन वर्तमान में, संयुक्त परिवार प्रणाली का एक शनैः शनैः किंतु निश्चित हृास देखा जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप माता-पिताओं की उनके परिवारों द्वारा बड़े स्तर पर उपेक्षा की जा रही है। इससे उन्हें भावनात्मक, शारीरिक और वित्तीय सहारे की कमी का सामना करना पड़ रहा है। ये वृद्ध व्यक्ति पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा के अभाव में कई विकट समस्याओं का सामना कर रहे हैं। जाहीर है इससे बुढ़ापा एक बड़ी सामाजिक चुनौती बन चुका है और वृद्ध लोगों की आर्थिक और स्वास्थ्य की जरूरतों को पूरा करने और एक सामाजिक परिवेश बनाने की आवश्यकता है,जो वृद्ध लोगों की भावनात्मक जरूरतों के लिए सहायक और संवेदनशील हो।

पाँच साल पहले वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इंडियन एजिंग कांग्रेस का आयोजन किया गया था। यहाँ दुनियाभर में तेजी से बढ़ते वृद्धों की समस्याओं और उसके सम्भावित समाधान तलाशने के उद्देश्य से इंडियन एकेडमी ऑफ जेरीयाट्रिक्स की आठवीं वार्षिक संगोष्ठी और एसोसिएशन ऑफ जेरेन्टोलॉजी की पन्द्रहवी कॉन्फ्रेंस में वृद्धों की समस्या पर काम कर रहे देश के शीर्ष चिकित्सकों, समाज-विज्ञानियों और वैज्ञानिकों ने वृद्धों को बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित करने की वकालत करते हुए वर्तमान व्यवस्था पर गहरी चिंता दर्शाई थी। एम्स (नई दिल्ली) में जिरियाट्रिक मेडिसिन के प्रमुख प्रो. एबी डे के अनुसार अगले 40 सालों में 30 करोड़ भारतीय 60 वर्ष से अधिक उम्र के होंगे। ऐसे वृद्धों की समस्या के समाधान के लिए बेसिक साइंस में और अधिक शोध पर बल देना होगा। वृद्धों की आवश्यकता अनुसार स्वास्थ्य सेवाएं विकसित करना बड़ी चुनौती है। नेशनल प्रोग्राम फॉर हेल्थकेयर ऑफ एल्डर्ली के तहत देश के 80 जिलों में 800 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से लेकर राष्ट्रीय चिकित्सा संस्थानों में वृद्धों के लिए विशेष वॉर्ड, ओपीडी आदि सुविधाएं विकसित की जानी थी, जो अभी तक नहीं हो सकी है। नेशनल पॉलिसी ऑन ओल्डर पर्सन से वृद्धों को पेंशन, इंश्योरेंस, हर जिले में ओल्ड एज होम आदि की सुविधा मिलने की उम्मीद की जा सकती है। इंडियन एकेडमी ऑफ जेरीयाट्रिक्स के अध्यक्ष प्रो. अरविन्द माथुर ने चिकित्सा शिक्षा में वृद्धों के अध्ययन को शामिल करने की बात कही। डॉ. एसएन मेडिकल कॉलेज, जोधपुर (राजस्थान) में मेडिसिन विभागाध्यक्ष प्रो. अरविन्द के अनुसार चिकित्सालयों के आपात चिकित्सा विभाग वृद्धों के लिए मुफीद नहीं है। तमाम अध्ययनों में पता चला है कि आपात चिकित्सा विभाग में जाने के बाद उन्हें स्वास्थ्य सम्बंधी अन्य समस्याएं होने लगती हैं। आपात चिकित्सा विभाग का डिजाइन, लाइटिंग, मैटिंग, शोर-गुल आदि वृद्धों को खासा परेशान करते हैं। जैसे-जैसे वृद्धों की संख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे अस्पतालों को भी उनके अनुसार बनाए जाने की जरूरत महसूस की जा रही है, ताकि अस्पताल आने पर वृद्धों का उचित इलाज हो सके न की उनकी बीमारी में और इजाफा हो।
सेंटर फॉर जेरेन्टोलॉजीकल स्टडीज (केरल) के निदेशक और इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी के अध्यक्ष प्रो. जेजे कट्टाकयम का कहना था कि चिकित्सा सेवा का विस्तार, इलाज में इस्तेमाल हो रही आधुनिक तकनीक और स्वास्थ्य के प्रति बढ़ रही जागरूकता के कारण आम आदमी की जीवन प्रत्याशा बढ़ी है। इसके साथ ही वृद्धों से जुड़ी तमाम समस्याओं ने भी पांव पसारा है। हमें वृद्धों की समस्या को समझते हुए सीमित संसाधनों के बल पर उन्हें एक स्वस्थ और खुशहाल बुढ़ापा देना है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के निदेशक प्रो. टीएम महापात्र ने इस बात पर ज़ोर दिया कि युवाओं पर ध्यान देने के साथ ही वृद्धों के स्वास्थ्य के प्रति भी सजग होना पड़ेगा। वृद्धों की चिकित्सकीय, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक समस्या का हल ढूंढना होगा। पुणे विश्वविद्यालय के एन्थ्रोपोलॉजी विभाग में एमेरिटस फेलो प्रो. अमृता बग्गा मानती हैं कि बदलती परिस्थितियों ने पारिवारिक ढांचे को प्रभावित किया है। आज का युवा अपने अस्तित्व की लड़ाई में बाहर जाने को विवश है, जिससे घरों में मां-बाप अकेले रहने को विवश हैं। ऐसा नहीं है कि संवेदनाएं समाप्त हो गयी हैं, लेकिन तमाम कारणों से मां-बाप से बच्चों की दूरी बढ़ रही है।  महाराष्ट्र के जनजातीय क्षेत्रों में किए गए अपने अध्ययन में उन्होंने बताया कि 31 फीसदी वृद्ध मां-बाप अकेले रह रहे हैं। कोई भी ऐसा परिवार नहीं मिला, जहां के युवा काम की तलाश में वे बाहर न गए हों। ऐसे में सरकार और समाज को वृद्धजन के सम्मान और स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की दृष्टि से गंभीरता से विचार करना होगा ।


फारूक आफरीदी, 
अतिथि संपादक, दैनिक राष्ट्रदूत