सोमवार, 11 मई 2015

भ्रष्टाचार पर कसी जाए लगाम

संपादकीय
भ्रष्टाचार पर कसी जाए लगाम
भ्रष्टाचार की गंभीर समस्या से ना केवल हमारा देश बल्कि पूरा विश्व ही कमोबेश जूझ रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हर साल ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संस्था द्वारा भ्रष्ट देशों की रेटिंग भी होती है,जिन पर संबंधित देशों को कारगर कदम उठाने होते हैं लेकिन अभी तक लगभग सभी देश इस दिशा में नाकाम ही सिद्ध हुए हैं। भ्रष्ट लोगों और भ्रष्ट संस्थाओं को बेनकाब करने लिए जो दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए, उसका नितांत अभाव ही नज़र आता है।आज के सोशियल मीडिया युग में भी अगर हम भ्रष्टाचार के निवारण के लिए कदम नहीं उठा पाते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह विडम्बना ही है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने अथवा इस पर सख्ती से लगाम कसने के लिए हम अभी तक कोई कारगर मैकेनिज़्म विकसित नहीं कर पाये हैं। दिल्ली वाले भ्रष्टाचार जैसे नासूर से कितने परेशान हैं, इसका इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि पिछले एक महीने के दौरान दिल्ली सरकार की हेल्पलाइन नंबर 1031 पर एक लाख 10 हजार से ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकायतें दर्ज हो चुकी हैं। हालांकि इनमें से अब तक महज सात मामलों में ही 25 लोगों की गिरफ्तारी हुई है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा 5 अप्रैल को तालकटोरा स्टेडियम में शुरू की गई हेल्पलाइन पर 30 दिनों के दौरान भ्रष्टाचार से संबंधित कुल 1 लाख 25 हजार फोन आए, हालांकि इनमें से 110380 फोन ही रिसीव हो पाए। अर्थात रोजाना चार हजार शिकायतें हेल्पलाइन पर रही हैं।  हेल्पलाइन पर फोन के जरिए दर्ज कराई गई शिकायतों में 6 हजार शिकायतें गंभीर पाई गईं। इनमें से 510 मामलों में शिकायत दर्ज की गई और 252 मामले एंटी करप्शन ब्रांच को भेजे गए। इनमें सर्वाधिक शिकायतें स्थानीय निकायों, पुलिस, परिवहन विभाग और जल बोर्ड जैसी सरकारी एजेंसियों के खिलाफ आई हैं। ये मुख्यत: आम जनता से संबंधित बुनियादी जरूरतों से जुड़े मामले हैं। दिल्ली में लोगों की शिकायतें दर्ज करने के लिए 35 कॉल सेंटर बनाए गए हैं, जहां पर 1031 के जरिए फोन करके शिकायतें दर्ज  कराई जाती हैं। सात शिकायतों में 25 सरकारी बाबुओं पर कार्रवाई हुई है और उन्हें गिरफ्तार किया गया है। इसके अलावा कुछ अन्य मामलों पर एंटी करप्शन ब्रांच जल्द ही कार्रवाई करने वाला है। सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार केवल निचले स्तर पर ही है ! ऊपर के स्तर पर भी स्थिति कोई संतोषजनक नहीं है। तत्काल छापामार कार्यवाही के लिए कोई योजना ही नहीं है।स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार करने वालों में कोई भय नहीं है। आम जनता परेशान है। नौकरशाही, जो जनता की गाढ़ी कमाई से  भरे गए सरकारी खजाने से मोटे वेतन प्राप्त करती है, उनमें एक बड़ा तबका भ्रष्ट आचरण से बाज ही नहीं आता। पब्लिक डीलिंग से जुड़ा कोई महकमा हो, वह भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है। सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों और अफसर यह बात भलीभाँति जानते हैं बल्कि इस कटु सत्य से अपनी आँखें मूंदे हुए हैं।
देश के सभी राज्यों में दिल्ली माडल के आधार पर भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए इस आधुनिक तकनीक का सही-सही इस्तेमाल किया जाए तो भ्रष्टाचार बहुत कुछ कम किया जा सकता है। इतना अवश्य है कि भ्रष्टाचार के नासूर को मिटाने के लिए कड़े कदम उठाने पड़ते हैं,सख्ती बरतनी पड़ती है और अपनी मशीनरी को चुस्त और दुरुस्त बनाना पड़ता है। इसकी सारी योजना को लागू करने के लिए सरकार को मुस्तैद होने की जरूरत है। अभी तो स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाली संस्थाएं ही पंगु बनी हुई हैं। वहाँ का आधारभूत ढांचा ही चरमराया हुआ है। इन संस्थाओंमें कार्यकारी अधिकारियों और कार्मिकों के पद ही रिक्त पड़े हैं। एक समस्या यह भी है कि यहां जितने अधिकारियों और कार्मिकों की वास्तविक आवश्यकता है उतने पद भी सृजित नहीं हैं। होना तो यह चाहिए की जनता के नेक, ईमानदार और साफ सुथरे चरित्र के सेवभावी लोगों को साथ लेकर सरकार कोई मैकेनिज़्म विकसित करे।
वैज्ञानिक युग की नई सूचना तकनीक ग्रामीण लोगों के लिए थोड़ी मुश्किल भरी हो सकती  है लेकिन गांवों की नई पीढ़ी अब इससे परिचित होकर इसका लाभ उठाने के प्रति सजग दिखाई दे रही है। उदाहरण के तौर पर देखें तो किसानों को मुआवजा राशि मिलने की शिकायत करने के लिए हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्रसिंह हुड्डा द्वारा जारी की गई हेल्पलाइन पर सांसद ग्राम योजना के तहत चुने गए गांव गुडियाखेड़ा के किसानों ने अपना दर्द नोट करवाया। किसानों ने फोन और इमेल के जरिए पूर्व मुख्यमंत्री को बताया कि उन्हें प्रति एकड़ 150 रुपये ही मुआवजा मिला है, जबकि अधिकतर किसानों को खराब फसल का मुआवजा भी नहीं मिला । किसानों ने बताया कि उनके साथ धोखा हुआ है। उन्हें मुआवजा राशि से वंचित रखा गया है। यह काम मीडिया भी आसानी से कर सकता है। कई मीडिया चैनल दर्शकों और अखबार अपने पाठकों के लिए हेल्पलाइन का इस्तेमाल करते हैं। अगर सभी भ्रष्टाचार दूर करने के लिए भी एक हेल्पलाईन शुरू करें तो यह भी एक बड़ी सेवा होगी।ऐसा नहीं सोचा जाना चाहिए कि यह सरकार का काम है। मीडिया के जरिये भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने से भ्रष्ट लोग कुछ तो शर्म महसूस करेंगे और उन पर दबाव भी बढ़ेगा।  
गौरतलब है कि कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला मामले में राजनीति से गहरा सरोकार रखने वाले बड़े नेताओं समेत 10 लोगों और पांच कंपनियों को आपराधिक साजिश, धोखाधड़ी, विश्वासघात व भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम की धाराओं में समन जारी कर आरोपियों को अदालत में पेश होने का निर्देश दिया गया हैप्रधानमंत्री चुनावों से पूर्व जनसभाओं में इस बड़े मुद्दे के रूप में पेश करते रहे हैं। ऐसे मामले आगे ना हों, इसकी गारंटी तो केवल सरकार ही दे सकती है। इधर दूसरी ओर मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी), केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) और लोकपाल की नियुक्ति अब तक नहीं हो पाने को आधार बनाते हुए प्रतिपक्ष में बैठी सोनिया ने पीएम पर पारदर्शिता के मुद्दे पर अपनी बात से पलटने का आरोप लगाया कहा जा रहा है कि सरकार आरटीआई अधिनियम को निष्प्रभावी बनाने पर तुली है। सरकार पर यह आरोप भी मढ़ा गया कि आम जनता को अब सरकार से सीधे सवाल करने का अधिकार नहीं रह गया है। अभी तक सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और कैग को आरटीआई के तहत जवाबदेह नहीं होने और सार्वजनिक जांच से छूट थी, लेकिन केंद्र में नई सरकार आने के बाद अब इस दायरे में पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय भी आ गए हैं। आंकड़ों के जरिये सरकार पर वार किया गया कि पिछले आठ महीने से सीआईसी का पद खाली है और तीन सूचना आयुक्तों के पद एक साल से खाली पड़े हैं जिसके चलते सूचना के अधिकार के 39  हजार मामले लंबित पड़े हैं। सूचना देने में देरी होना सूचना नहीं देने के समान है। ऐसे में सरकार के पारदर्शिता और सुशासन के वायदों को पुष्ट करने कि जरूरत है। गलत काम करने वालों को संरक्षण प्रदान करना किसी सरकार के नैतिक मूल्यों का हिस्सा नहीं हो सकता।हालांकि केंद्र सरकार के गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह का इस संबंध में कहना था कि सीआईसी पद पर नियुक्त के लिए चयन समिति अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है, जबकि सीवीसी का मामला सुप्रीम कोर्ट में है। सरकार का पक्ष कुछ भी हो लेकिन ऐसे प्रकरणों को प्राथमिकता से निपटाया जाए तो इससे सरकार की प्रतिबद्धता झलकती है वहीं जनता को भी भ्रष्टाचार से राहत मिलने का मार्ग प्रशस्त होता है।
अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी

लेखक एवं पत्रकार 

विज्ञान और तकनीकी संस्थाओं को विशेष तरजीह दी जाए

संपादकीय
विज्ञान और  तकनीकी संस्थाओं को विशेष तरजीह दी जाए
आज के इस वैज्ञानिक और टेक्नोलोजी के युग में इससे जुड़ी संस्थाओं और सरकारी प्रतिष्ठानों अथवा उपक्रमों को विशेष तरजीह देने की आवश्यकता है ताकि इनके जरिये जनता और सरकार के काम आसानी से हो सकें। देखने में आया है की इन संस्थाओं में तकनीशियनों और वैज्ञानिकों के पद खाली रहते हैं जिससे ऐसी संस्थाएं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पति । गौर तलब है की इन संस्थाओं की स्थापना पर करोड़ों रुपये खरक होते हैं लेकिन बाद में इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता और वे रेंगती रहती हैं।राजस्थान जैसे मरू प्रदेश की अपनी प्रकृतिक चुनौतियाँ हैं जिनसे निपटने में इन संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान ओ सकता है। उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि जोधपुर में रिमोट सेन्सिंग सेंटर इन दिनों बदहाली के दौर में है जिसके सुचारु संचालन के लिए सरकार को तत्काल तवज्जो देने कि जरूरत है।
रिमोट सेन्सिंग सेंटर ने स्थापना से लेकर अब तक कई महत्वपूर्ण काम अंजाम दिये है। मारू विकास कार्यक्रम के तहत इस संस्था की स्थापना वर्ष 1979 में इस सोच के साथ की गयी थी की मरुस्थल मीमे रहा रहे नागरिकों की परेशानियाँ कम करने में वैज्ञानिक और तकनीकी योगदान से कई कुछ बदलाव लाया जा सके ग। इसकी अच्छी शुरुआत भी हुई लेकिन शासन ने उतना ध्यान नहीं दिया जिसकी अपेक्षा की गयी थी। इस केंद्र ने नतीजे  देने में भी कोई कमी नहीं रखी बल्कि यहाँ के वैज्ञानिकों ने अपनी जान लगाकर कम किया। प्रथम निदेशक बी.वी. मोघे और डा.एन.के. कालरा ने अपने समर्पण के कारण खूब ख्याति अर्जित की और इस संस्थान का सम्मान राष्ट्रीय स्तर बढ़ाया। केंद्र ने उपग्रह से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर मरुस्थलीय जिलों की भौगोलिक और प्राकृतिक सम्पदा पर अनेक महत्वपूर्ण प्रतिवेदन तैयार किए हैं।इन प्रतिवेदनों को बहुत एहनत और वैज्ञानिक सूझबूझ से काफी समय लेकर तैयार किया गया था। वर्ष 2000 में प्रदेश में सूखे और अकाल के दौरान इस सुदूर संवेदन केंद्र ने इन्दिरा गांधी नहर परियोजना के के नहरी क्षेत्र के वाटर लोगिंग क्षेत्रों की उपग्रह सूचना प्रणाली से पहचान की थी। इसके आदर पर राजस्थान में अकालग्रस्त पशुधन के लिए चारा उगाने का मार्ग प्रशस्त हो सका अन्यथा आँय प्रदेशों से महंगा चारा मंगवाकर चारे की जरूरत को पूरा किया जा रहा था और इससे रदेश को कई अर्थभार वहन करना पड़ रहा था। इस संस्थान ने प्रदेश के 100 से अधिक  बांधों की भराव क्षमता के विकास का काम भी किया जो उपग्रह सूचना आधारित प्रणाली के कारण ही संभव हो सका था। अजमेर की आनासागर झील का जो वर्तमान स्वरूप आज हम देख रहे हैं, इसकी भराव क्षमता के विकास और विस्तार को सुदृढ़ बनाने में भी इस केंद्र की महत्वपून भूमिका रही है। यह वही संस्था है जिसने कुछ वर्षों पहले जयपुर के सीतापुरा में हुए भयंकर अग्निकांड के बाद वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों और उसकी तीव्रता का विशद अध्ययन करके सरकार को जानकारी उपलब्ध करवाई थी। इससे इस संस्था के महत्व और औचित्य को भलीभाँति समझा और अनुभव किया जा सकता है।
यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि अगर इस संस्थान के पास वर्तमान में पर्याप्त तकनीकी और वैज्ञानिक जनशक्ति होती तो हाल ही प्रदेश में हुई बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि के बाद किसानों को दिये जाने वाले मुआवजे के लिए मानव द्वरा तैयार गिरदावरी रिपोर्ट पर निर्भर नहीं रहन पड़ता जिस पर पक्षपातपूर्ण होने के आरोप लगते रहे हैं। यदि उपग्रह सूचना प्रणाली से गिरदावरी होती तो उस में कोई दोष नहीं ढूंढा जा सकता था बल्कि वह मानव निर्मित गिरदावरी के मुक़ाबले सही, सटीक और समय पर भी होती। इससे सरकार को यह लाभ होता कि वह अपनी रिपोर्ट यथाशीघ्र केंद्र सरकार को भिजवा देती और फसलों के खराबे के आधार परर किसानों को उचित मुआवज़ा मिलने का रास्ता तय होता और किसानों को भी गिरदावरी में कोई चूक या गलती रह जाने की शिकायत नहीं रहती।
सुदूर संवेदन केंद्र यदि पूरी क्षमता के साथ गतिशील होता तो उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर सही सह गिरदावरी होने में मदद मिलती। वर्तमान में यह केंद्र पूरी गति के स्था इसलिए काम नहीं कर पा रहा है कि इसमें कोई पूर्णकालिक निदेशक ही नहीं बल्कि पूर्णकालिक वैज्ञानिक भी सेवारत नहीं है।एक समय था जब इस केंद्र में 25 वैज्ञानिक 100 से आधी का स्टाफ हुआ करता था।इनमें से अनेक सेवानिवृत हो चुके हैं और शेष को सरकारी आदेश से अपने मूल विभागों में भेज दिया गया है। यहाँ हालत यह है कि संस्था के वैज्ञानिको के सेवा नियम ही नहीं बने। ऐसे में उनके काम करने और हित सुरक्षा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। यह विडंबनापूर्ण ही था। यह नीतियाँ और कार्यक्रम बनाने वकों का दोष ही माना जाएगा कि लंबे समय से काम कर रही एक संस्था कि घोर उपेक्षा की गयी।अब भी समय है, इस गलती को सुधारा जा सकता है। जिस संस्था ने हमेशा प्रशंसा बटोरी, उसकी इतनी दुर्दशा किसी भी रूप में समझ नहीं आती। केंद्र में कोई भी सरकार रही हाओ विज्ञान को हमेशा बढ़ावा देने के प्रयास रहे हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री ने डिजिटल इंडिया का नारा दिया है। इसके अनुसरण में राजस्थान में डिजिटल राजस्थान की बात भी बराबर की जाती रही है। डिजिटलाईजेशन या कंप्यूटर के क्षेत्र में विकास से ही सम्पूर्ण विकास संभव नहीं है।आज समग्र विकास की आवश्यकता भी है। ऐसे में विज्ञान और तकनीकी संस्थानों को सशक्त बनाए बिना विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।यह केवल एक रिमोट सेन्सिंग सेंटर का सवाल नहीं है बल्कि इस प्रकार की जितनी भी संस्थाएं हैं उनको पुनर्जीवित करने पर साकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए। ऐसी संस्थाओं के लिए आवश्यक पदों के सर्जन से लेकर उनमें कार्य करने वाले वैज्ञानिकों और तकनिशयनों के पदोन्नति के द्वार भी खोले जाने चाहिए। इन संस्थाओं को ऐसा वातावरण मिले कि वहां काम करने वाले सभी लोग अपनी सेवाएँ समर्पित भावना के साथ दे सकें। वैज्ञानिकों को केंद्र सरकार हमेशा से सम्मान देती आयी है और हमारे वैज्ञानिकों ने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं जिसकी पूरे विश्व में खास पहचान है। इस पहचान को बनाए रखने का का काम सरकार का है। खास तौर से जब बात राजस्थान की हो तो विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्यों की यह प्रदेश अभी भी वैज्ञानिक अनुसन्धानों का पूरा तो दूर किंचित लाभ भी नहीं उठा पाया है। मुख्यमंत्री जी को इस मामले में प्रसंज्ञान लेकर वैज्ञानिक अनुसन्धानों को बढ़ावा देने में पहल करने की जरूरत है। साथ ही संबन्धित विभाग को भी इसके समुत्थान के लिए प्रेरित करना चाहिए। 
अतिथि संपादक
फ़ारूक आफरीदी
लेखक एवं पत्रकार      

     

संपन्नता के अपने अधिकार को कौन छोड़ता है ?

संपादकीय
संपन्नता के अपने अधिकार को कौन छोड़ता है ?

एक तरफ देश में आरक्षण का लाभ लेने के लिए विभिन्न जातियाँ लामबंद हो रही हैं और आंदोलन की जोरदार तैयारियां की जा रही हैं वहीं दूसरी ओर यह सुनने में आ रहा है कि संसद और राज्य की विधनासभाओं के पूर्व एवं वर्तमान सदस्यों के बच्चे ओबीसी कोटे के अंतर्गत आरक्षण के लिए पात्र नहीं हैं। बताया जाता है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सिफारिश की है कि उक्त आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए । इस संबंध में ओबीसी पैनल ने कहा है कि जो भी व्यक्ति संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए चुन लिया जाता है उसका सामाजिक और आर्थिक स्तर बेहतर हो जाता है, ऐसे में उसे क्रिमीलेयर में आना चाहिए। यह प्रस्ताव उन शिकायतों के बाद दिया गया जिसमें यह कहा गया है कि जनप्रतिनिधियों के बच्चों को भी गैर-क्रिमीलेयर का प्रमाण पत्र जारी किया जा रहा है।पैनल ने यह भी प्रस्तावित किया है कि केन्द्र और राज्य सरकारों में प्रथम श्रेणी के अधिकारियों को भी आरक्षण के लाभों से बाहर किया जाना चाहिए। बावजूद इसके कि वह अधिकारी अपने पद पर सीधा नियुक्त हुआ हो अथवा प्रमोशन से उस पद पर पहुंचा हो। फिलहाल प्रथम श्रेणी का अधिकारी उन्हें ही माना जाता है जो सीधे पद पर नियुक्त हुए हैं। आयोग का कहना है कि कोई भी प्रथम श्रेणी का अधिकारी सामाजिक उन्नयन का वह स्तर पा लेता है, जहां उसे आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं होती। आयोग ने कहा कि प्रथम श्रेणी का वह अधिकारी, जो पदोन्नत होकर उस पद पर पहुंचा है, वो सीधे नियुक्त हुए अधिकारी से ज्यादा तनख्वाह पाता है। आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि क्रीमीलेयर की आय सीमा को 6 लाख से बढ़ाकर साढ़े 10 लाख किया जाए। आयोग ने यह भी कहा है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू नहीं होती। यह मसौदा आयोग ने सामाजिक न्याय मंत्रालय को भेजा है।

द्रमुक ने भी राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण लाभ के लिए क्रीमीलेयर का दायरा मौजूदा छह लाख रुपए से बढ़ाकर 10.5 लाख रुपए करने की सिफारिश का स्वागत किया और केंद्र से इसे स्वीकार करने की गुजारिश की है। पार्टी प्रमुख एम. करुणानिधि ने कहा कि द्रमुक का हमेशा से यह मानना है कि क्रीमीलेयर की कोई अवधारणा नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह अन्य पिछड़ा वर्ग को बांटता है। उन्होंने एक बयान में कहा, यह मानते हुए कि क्रीमीलेयर की अवधारणा की वजह से 27 फीसदी आरक्षण कोटा यूपीए-एक के शासन में लाया गया, को सही तरीके से लागू नहीं किया जा सका और सरकार द्वारा दिया गया लाभ अन्य पिछड़ा वर्ग को नहीं मिल सका। उनका कहना है कि नरेंद्र मोदी नीत सरकार को पिछड़ा आयोग की सिफारिशों को मानना चाहिए और तुरंत आदेश जारी करने चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर सरकार प्रस्ताव को स्वीकार करती है तो ओबीसी के अंतर्गत आने वाले करोड़ों लोगों को केंद्र और राज्य सरकार के शैक्षिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में अतिरिक्त आरक्षण का लाभ मिले सकेगा।

 

संभव है आगे चलकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति आयोग भी इसी आधार पर कोई सिफारिशें करे। यह अलग बात है कि वैसे सामान्य वर्ग में हमेशा ही सुगबुगाहट बनी रहती है कि एससी-एसटी का आरक्षण आर्थिक आधार पर मिलना चाहिए ना कि वर्ग के आधार पर दिया जाए। संसद एससी-एसटी को आरक्षण देने की अवधि पहले ही बढ़ा चुकी है और फिलहाल इसके समाप्त होने के कोई आसार नहीं हैं। दूसरी ओर एक बार विधायक, सांसद और मंत्री, मेयर, जिला प्रमुख रह चुके जन प्रतिनिधि और अखिल भारतीय सेवा या उसके समकक्ष स्तर के अधिकारी भी इसका लाभ उठाना छोड़ दें तो यह एक बड़ी पहल हो सकती है। दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि संपन्न वर्ग ने अपने आपको मिली सुविधा को स्वेच्छा से कभी छोड़ा हो। यहाँ तो कानून बन जाने के बाद भी लोग गलियाँ ढूंढ लेते हैं और कानून को धता दिखा देते हैं।
लाभ छोडने की जहां तक बात है, सम्पन्न लोग प्रधानमंत्री की बारबार की जा रही अपील के बावजूद गैस सिलेन्डर पर मिल रही अपनी सबसिडी तक छोड़ने को तैयार नहीं है। देश की आबादी लगभग सवा अरब और 15.3 करोड़ गैस उपभोक्ता हैं। मार्च 2015 तक देश के केवल 3 लाख एलपीजी उपभोक्ताओं ने गैस पर मिलने वाली सरकारी सब्सिडी लेना छोड़ा है। होना तो यही चाहिए कि आर्थिक तौर पर सक्षम तमाम लोग गैस सब्सिडी लेने से खुद मना करें। देश का कारपोरेट जगत जो लाखों रुपये मासिक सेलेरी पैकेज लेते हैं, क्या उन्हें इस दिशा में नहीं सोचना चाहिए ! इसी तरह देश की बहुत बड़ी नौकरशाही जमात भी इसी दायरे में आती है। वे भी सब्सिडी का लाभ उठा रहे हैं और स्वेच्छा से छोड़ने को राजी नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने दिल्ली में हुए ऊर्जा संगम सम्मेलन में कहा, ‘क्या देश में ऐसे लोग नहीं हैं जो कहें: हमें गैस सब्सिडी की ज़रूरत नहीं है। हम खुद कमाकर गैस खरीद सकते हैंउन्होंने मैं देशवासियों से अपील की : आइए, हम गिव इट अप केंपेन से जुड़ें और गैस सब्सिडी को छोड़ें।साथ ही सरकार सब्सिडी से हुई बचत का इस्तेमाल गरीबों तक सस्ती गैस पहुंचाने में करना चाहती हैप्रधानमंत्री का इशारा आने वाले दिनों में तेल-गैस आयात पर निर्भरता घटाने की पहल को लेकर भी थाउन्होंने 2022 तक उर्जा से स्रोतों के आयात पर निर्भरता दस फीसदी तक घटाने की मंशा भी दर्शाई।देश के लाखों एलपीजी उपभोक्ताओं तक गैस सब्सिडी का फायदा सीधे उनके बैंक खातों तक पहुंचाने में सफलता के बाद अब प्रधानमंत्री गैस सब्सिडी पुनर्गठित करने की दिशा में सरकार की कोशिश को और आगे बढ़ाना चाहते हैं। गैस सब्सिडी छोड़ो मुहीम उनकी इसी रणनीति का एक अहम हिस्सा है।प्रधानमंत्री को बजाय अपील के अब कानून बनाकर सक्षम लोगों की सब्सिडी एक झटके में खत्म करने का फैसला करने की जरूरत है ।
गौरतलब है कि इन जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्ते बिना बहस के लोकसभा से लेकर विधानसभाओं तक में पारित हो जाते हैं।यही नहीं ये भत्ते कई गुना बढ़ जाते हैं। विपक्ष मेन बैठी पार्टियां भी ऐसे समय चुप्पी साध लेती हैं और कहीं कोई विरोध नहीं होता। यह सारा धन जनता की गढ़ कमा का ह हिस्सा होता है। इसी प्रकार कई मंत्रियों और अधिकारियों को को जब  कई विभागों का अतिरिक्त प्रभार मिलता है तो उन विभागों की गाड़ियों का भी बेजा इस्तेमाल किया जाता है।जाहीर है इंका बेजा इस्तेमाल करने वालों मेन इनके परिवार सबसे आगे रहते हैं और कोई रोकने–टोकने वाला नहीं होता। ऐसे में क्या ये मंत्रीगण और अधिकारीगण स्वेच्छा से इन सुविधाओं का लाभ नहीं छोड़ सकते! सरकार नियम बनाकर इस प्रकार के दुरुपयोग को रोक सकती है।

अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी

लेखक और पत्रकार      

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

भारतीय नागरिकता की पहचान का संकट

संपादकीय
भारतीय नागरिकता की पहचान का संकट
आजादी के 68 साल बीत गए लेकिन आज भी भारतीय नागरिक के पास ऐसा कोई एक सर्वमान्य दस्तावेज़ नहीं है जिसके आधार पर यह सुनिश्चित  किया जा सके किवह एक दस्तावेज़ मानी है। कहने को आधार कार्ड भी है, राशन कार्ड भी है, पैन कार्ड भी है और पासपोर्ट भी है, जो नागरिक के भारतीय होने का सबूत देते हैं लेकिन एक कोई दस्तावेज़ नहीं जो सभी की पूर्ति करता हो। यह एक विडम्बना ही कही जाएगी कि ऐसा कोई एक दस्तावेज़ अभी भी विकसित नहीं हो पाया है जिससे  नागरिकों को इस परेशानी से छुटकारा मिल सके। सरकार आगामी दिनों में ऐसे कदम उठाने जा रही है जिससे अब पैन कार्ड मिलने में अधिक समय नहीं लगेगा। कहा जा रहा है कि सरकार के इस कदम से आनलाइन आवेदन करने पर सिर्फ 48 घंटे में यानि दो दिनों में पैन कार्ड बनकर लोगों के घर पहुंच जाएगा। सरकार ऐसी व्यवस्था करने जा रही है जिसके तहत आनलाइन पैन कार्ड पाने में लगने वाला समय औसतन पंद्रह दिन से घटकर दो दिन रह जाएगा। यह भी कहा जा रहा  है कि सरकार इसकी औपचारिक घोषणा जल्दी ही कर देगी।बैंक अकाउंट खोलने के लिए आधार कार्ड पर्याप्त नहीं है। बिजली,पानी,गैस,टेलीफोन, मोबाइल कनेक्शन के लिए भी विभागों की अलग अलग शर्ते हैं। कोई एक तो ऐसा दस्तावेज़ हो जो नागरिकों को इन झंझटों से मुक्ति दिलाये। राशन कार्ड पर सवाल उठाए जाते हैं, पैन कार्ड, इलेक्शन आईडी कार्ड पर सवाल उठाए जाए हैं। एक साधारण आदमी के लिए इनमें से कोई भी कार्ड बनवाना आसान नहीं है।एक बार अगर कोई कार्ड बन गया और ऊसमें नाम, पिता अथवा पति का नाम, पता, जन्म तिथि आदि मे कोई त्रुटि रह जायी है तो उस कार्ड की वैधता ही समाप्त हो जाती है। एक गलती भी रह जाए तो पासपोर्ट नहीं बन पाता। पासपोर्ट सबसे संवेदनशील दस्तावेज़ होता है, जिस में एक गलती बहुत भरी पड़ सकती है। आज विज्ञान का युग है और अधहर ऐसा कार्ड एक ऐसा दस्तावेज़ हो सकता है जिसमें इंसान की अंगुलियों, अंगूठा, आँखों की पुतलियों से लेकर उसका समस्त परिचय होता है।इसमें माता-पिता, अभिभावक सभी भाई-बहनों के साथ सबके रक्त समूह को भी इसका हिस्सा बना दिया जाए तो यह एक पूर्ण दस्तावेज़ हो सकता है। इसके बनाने पर सरकार अब तक करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है, लेकिन आज भी अनिवार्यता और मान्यता नहीं बन पायी है। इस पहचान को कब तक अधरझूल में अटकाए रखा जाएगा। जिस सरकार ने चुनाव से पहले आधार कार्ड की वैधता पर सवाल खड़े किए थे वही सरकार अब इसे अपना रही है लेकिन इसकी खामियों को दूर करने के उपोय अभी तक नहीं किए गए है। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं है कि वहाँ की नागरिकता के लिए चार पाँच दस्तावेज़ दिखाने पड़टे हों। फिर इस मामले में भारत कब तक पिछड़ा रहेगा !    
 
देश में पैन कार्ड बनवाने के लिए अभी दो एजेंसियां एनएसडीएल और यूटीआइ टेक्नोलाजी सविर्सेज काम करती हैं । दोनों एजेंसियों के पोर्टल पर पैन कार्ड बनवाने के लिए आनलाइन आवेदन किया जा सकता है। पैन कार्ड बनवाने का काम आसान बनाने के लिए नियम आसान बनाने का काम  सरकार ने शुरू कर दिया है। इसके तहत सरकार ने घोषणा की थी कि अब केवल आधार कार्ड या वोटर कार्ड ही पैन के लिए पर्याप्त दस्तावेज होगा। अभी तक लोगों को अपनी जन्मतिथि, पहचान और आवास की पुष्टि करने के लिए तीन-तीन दस्तावेज देने होते थे।
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसी साल के बजट में घोषणा की थी कि अब सभी ऊंची कीमत वाले लेनदेन में लोगों को पैन संख्या देना अनिवार्य होगा। साथ ही काले धन की रोकथाम के लिए सरकार ने सभी तरह के प्रोपर्टी और सोना खऱीदने के लिए होने वाले लेनदेन में भी पैन कार्ड को अनिवार्य बनाने का ऐलान किया था। ऐसा होने के बाद पैन कार्ड बनने में लगने वाले समय को लेकर भी लोगों की काफी शिकायतें सरकार को मिल रही थीं। उसे देखते हुए ही सरकार ने 48 घंटे में पैन कार्ड बना कर लोगों तक पहुंचाने का फैसला किया है। गौर तलब है कि चुनाव से पहले सरकार ने आम जनता को तोहफ़ा देते हुए सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या नौ से बढ़ाकर 12 कर दी थी। साथ ही गैस पर दी जाने वाली सब्सिडी को आधार कार्ड के ज़रिए बैंक में ट्रांसफ़र करने की योजना पर फ़िलहाल रोक लगा दी गई है। देश में आज भी पर्याप्त संख्या में लोगों के आधार कार्ड नहीं बन पाये है। तर्क ये है कि इस प्रक्रिया में कुछ तकनीकी मुद्दे हैं जिनसे जूझ़ा जा रहा है। सरकार पहले ही आधार कार्ड की महत्वाकांक्षी योजना के मद् में साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। आधार कार्ड से जुड़े मुद्दों पर शुरुआत से ही तमाम सवाल उठते रहे हैं। कोई इसे निजता में सरकारी हस्तक्षेप मानता है तो इसके तमाम फ़ायदे गिनाता है। इस यूनीक आइडेंटिफ़िकेशन नंबर की उपयोगिता पर आज भी प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है।
एक तरफ केंद्र सरकार की बहुद्देश्यीय योजना के तहत देशभर में बनाए जा रहे आधार कार्ड की उपयोगिता का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। केंद्र सरकार की ओर से सरकारी नौकरी, छात्रवृत्ति, फेलोशिप और पासपोर्ट के लिए अनिवार्य किए गए आधार कार्ड का दायरा बढ़ा कर अब इसे पैनकार्ड बनवाने के लिए भी आवश्यक कर दिया गया है।आधार कार्ड की उपयोगिता लगातार बढ़ने के कारण केंद्र सरकार के निर्देशों पर अब वेबसाइट से भी आधार डाउनलोड करने की सुविधा प्रदान की जा चुकी है। इसके लिए सिर्फ नामांकन के समय मिली रसीद की ऑन लाइन जानकारी देनी होगी।केंद्र सरकार ने ईआधार डॉट यूआईडीएआई डॉट जीओवी डॉट इन पर कार्ड को डाउनलोड करने की व्यवस्था की है।  कहने को तो शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ जिलास्तर पर सुविधा केंद्र के अलावा तहसील स्तर पर सरकार द्वारा संचालित कॉमन सर्विस सेंटर में भी नाममात्र के शुल्क पर आधार कार्ड डाउन लोड करने की सुविधा मुहैया कराई जा रही है,लेकिन यह योजना कितनी कारगर सिद्ध हो रही है, इसका कोई आकलन नहीं कराया जा रहा है। अनेक लोगों के आधार कार्ड तो बने हुए हैं किन्तु स्थान परिवर्तन के कारण वे संशोधन की मांग करते हैं जो कि कोई आसान काम नहीं है। जिस प्रकार अभियान चलाकर वोटर आईडी कार्ड बनाए जाते हैं और उनमें संशोधन के लिए नियमित रूप से शिविर लगाए जाते हैं वैसे ही आधार कार्ड बनवाने और उनमें संशोधन के लिए मोहल्ले और वार्डवार  शिविरों का आयोजन करने की जरूरत है। इस दिशा में ध्यान देने की जरूरत है। यदि इन सभी कार्यों के लिए देश में एक नागरिकता विभाग बन सके तो और भी बेहतर होगा जिसमें इससे जुड़ी सभी समस्याओं का समाधान किया जा सके। इसकी सखटें सभी जिला तहसील ब्लाक स्तर पर हो। इस प्रकार का विभाग पर्याप्त स्टाफ के साथ स्वतंत्र रूप से अपना काम अंजाम दे सकता है । इस विभाग में ही सभी प्रकार के संशोधन संबंधी कार्य भी नियमित रूप से रूप से किए जा सकते हैं। इससे लोगों को भी अलग अलग विभागों के चक्कर काटने से छुटकारा मिल जाएगा।
फारूक आफरीदी
अतिथि संपादक,
दैनिक राष्ट्रदूत
फ़ारूक आफरीदी

   

वृद्धों को स्वस्थ और खुशहाल जीवन कैसे मिले !

संपादकीय
वृद्धों को स्वस्थ और खुशहाल जीवन कैसे मिले !
देश के वृद्धों का ख्याल रखने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय एम्स, नई दिल्ली और चेन्नई स्थित मद्रास मेडिकल कालेज में अत्याधुनिक नेशनल सेंटर फॉर एजिंग स्थापित करने की योजना बना रहा है। अच्छी गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराने के उद्देश्य से देश के मेडिकल कालेजों में वृद्धों के लिए 12 क्षेत्रीय सेंटर भी स्थापित किए गए हैं, जिनमें 8 सेंटर काम कर रहे हैं। दावा तो यह भी किया गया है कि इन सेंटर्स पर बुढ़ापा संबंधी सभी समस्याओं का विशेषज्ञों द्वारा समाधान किया जा सकेगा। वे घर में देखभाल संबंधी सामान्य नियमों का विकास करेंगे और विशेषज्ञों को प्रशिक्षण देने के साथ वृद्धों की देखभाल के लिए प्रोटोकोल भी तैयार करेंगे। गौरतलब है कि वर्तमान में देश में वृद्धों के लिए कोई विशेषज्ञ सेवा उपलब्ध नहीं है। यह भी एक तथ्य है कि पाँच साल पहले इस दिशा में चिकित्सा विशेषज्ञों की कॉन्फ्रेंस में इस विषय पर वाराणसी में गहन विचार विमर्श हुआ था और उसमें की गई सिफ़ारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया या फिर अब साकार की आँख खुली है।  सरकार का यह कदम देर आयद दुरुस्त आयद जैसा है, लेकिन इसे गंभीरता के साथ लागू किया जाए तभी बात बनेगी अन्यथा यह भी एक घोषणा भर ही रह जाएगी।

भारत के वृद्ध पुरुषों की दो-तिहाई आबादी और वृद्ध महिलाओं की 90-95 फीसदी आबादी निरक्षर है और उनकी बड़ी संख्या, विशेषकर महिलाएं अकेली है। भारत में वृद्धजन की जनसंख्या में सतत वृद्धि हो रही है। वृद्ध व्यक्तियों की संख्या 1959 में 1 करोड़ 98 लाख थी और अनुमानों से संकेत मिलते हैं कि भारत में 60 वर्ष से अधिक उम्र वालों की संख्या 2030 में बढ़कर 19 करोड़ 80 लाख हो जाएगी। जीवन की अनुमानित आयु, वर्ष 1947 में करीब 29 वर्ष थी, जो कई गुना बढ़कर अब करीब 63 वर्ष पहुँच गयी है। केंद्र सरकार ने वृद्धों के लिए राष्ट्रीय वृद्धजन नीति 1999 में घोषित की थी, जिसमें उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के साथ उनकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सरकारी सहायता की परिकल्पना की गई थी। राष्ट्रीय वृद्धजन नीति के तहत वृद्धजनों को वित्तीय और खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, आश्रय, इसके साथ ही वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और उनका कल्याण सुनिश्चित करने के लिए अधिनियम बनाया गया था। इसमें बच्चों या सम्बंधियों द्वारा वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण को अनिवार्य करने तथा न्यायाधिकरणों के माध्यम से न्यायोचित बनाने की व्यवस्था हैबेसहारा वरिष्ठ नागरिकों के लिए वृद्धाश्रमों की स्थापना करना भी सरकार की योजना में शामिल है। संविधान की धारा 1(3) के अनुसार, अधिनियम को अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा लागू किया जाना है। इन प्रावधानों को कागजी दस्तावेजों में दर्ज प्रावधानों को जब तक धरातल पर नहीं लाया जाता तब तक सब बेमानी है। सरकार वृद्धाश्रम बनाने की बातें भी करती रही लेकिन उसे धरातल पर नहीं उतार पायी। घोषणाएँ करके वाहवाही लूटना अलग बात है। यह काम यदि निजी क्षेत्रों को सौंप दिया जाता और हर दृष्टि से प्रोत्साहन दिया जाता तो आज तस्वीर कुछ अलग ही होती।

भारतीय समाज के परम्परागत मानक और मूल्य बड़ों के प्रति सदैव आदर दर्शाने और उनकी देखभाल करने पर जोर देते थे, लेकिन वर्तमान में, संयुक्त परिवार प्रणाली का एक शनैः शनैः किंतु निश्चित हृास देखा जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप माता-पिताओं की उनके परिवारों द्वारा बड़े स्तर पर उपेक्षा की जा रही है। इससे उन्हें भावनात्मक, शारीरिक और वित्तीय सहारे की कमी का सामना करना पड़ रहा है। ये वृद्ध व्यक्ति पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा के अभाव में कई विकट समस्याओं का सामना कर रहे हैं। जाहीर है इससे बुढ़ापा एक बड़ी सामाजिक चुनौती बन चुका है और वृद्ध लोगों की आर्थिक और स्वास्थ्य की जरूरतों को पूरा करने और एक सामाजिक परिवेश बनाने की आवश्यकता है,जो वृद्ध लोगों की भावनात्मक जरूरतों के लिए सहायक और संवेदनशील हो।

पाँच साल पहले वाराणसी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इंडियन एजिंग कांग्रेस का आयोजन किया गया था। यहाँ दुनियाभर में तेजी से बढ़ते वृद्धों की समस्याओं और उसके सम्भावित समाधान तलाशने के उद्देश्य से इंडियन एकेडमी ऑफ जेरीयाट्रिक्स की आठवीं वार्षिक संगोष्ठी और एसोसिएशन ऑफ जेरेन्टोलॉजी की पन्द्रहवी कॉन्फ्रेंस में वृद्धों की समस्या पर काम कर रहे देश के शीर्ष चिकित्सकों, समाज-विज्ञानियों और वैज्ञानिकों ने वृद्धों को बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित करने की वकालत करते हुए वर्तमान व्यवस्था पर गहरी चिंता दर्शाई थी। एम्स (नई दिल्ली) में जिरियाट्रिक मेडिसिन के प्रमुख प्रो. एबी डे के अनुसार अगले 40 सालों में 30 करोड़ भारतीय 60 वर्ष से अधिक उम्र के होंगे। ऐसे वृद्धों की समस्या के समाधान के लिए बेसिक साइंस में और अधिक शोध पर बल देना होगा। वृद्धों की आवश्यकता अनुसार स्वास्थ्य सेवाएं विकसित करना बड़ी चुनौती है। नेशनल प्रोग्राम फॉर हेल्थकेयर ऑफ एल्डर्ली के तहत देश के 80 जिलों में 800 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र से लेकर राष्ट्रीय चिकित्सा संस्थानों में वृद्धों के लिए विशेष वॉर्ड, ओपीडी आदि सुविधाएं विकसित की जानी थी, जो अभी तक नहीं हो सकी है। नेशनल पॉलिसी ऑन ओल्डर पर्सन से वृद्धों को पेंशन, इंश्योरेंस, हर जिले में ओल्ड एज होम आदि की सुविधा मिलने की उम्मीद की जा सकती है। इंडियन एकेडमी ऑफ जेरीयाट्रिक्स के अध्यक्ष प्रो. अरविन्द माथुर ने चिकित्सा शिक्षा में वृद्धों के अध्ययन को शामिल करने की बात कही। डॉ. एसएन मेडिकल कॉलेज, जोधपुर (राजस्थान) में मेडिसिन विभागाध्यक्ष प्रो. अरविन्द के अनुसार चिकित्सालयों के आपात चिकित्सा विभाग वृद्धों के लिए मुफीद नहीं है। तमाम अध्ययनों में पता चला है कि आपात चिकित्सा विभाग में जाने के बाद उन्हें स्वास्थ्य सम्बंधी अन्य समस्याएं होने लगती हैं। आपात चिकित्सा विभाग का डिजाइन, लाइटिंग, मैटिंग, शोर-गुल आदि वृद्धों को खासा परेशान करते हैं। जैसे-जैसे वृद्धों की संख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे अस्पतालों को भी उनके अनुसार बनाए जाने की जरूरत महसूस की जा रही है, ताकि अस्पताल आने पर वृद्धों का उचित इलाज हो सके न की उनकी बीमारी में और इजाफा हो।
सेंटर फॉर जेरेन्टोलॉजीकल स्टडीज (केरल) के निदेशक और इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी के अध्यक्ष प्रो. जेजे कट्टाकयम का कहना था कि चिकित्सा सेवा का विस्तार, इलाज में इस्तेमाल हो रही आधुनिक तकनीक और स्वास्थ्य के प्रति बढ़ रही जागरूकता के कारण आम आदमी की जीवन प्रत्याशा बढ़ी है। इसके साथ ही वृद्धों से जुड़ी तमाम समस्याओं ने भी पांव पसारा है। हमें वृद्धों की समस्या को समझते हुए सीमित संसाधनों के बल पर उन्हें एक स्वस्थ और खुशहाल बुढ़ापा देना है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के निदेशक प्रो. टीएम महापात्र ने इस बात पर ज़ोर दिया कि युवाओं पर ध्यान देने के साथ ही वृद्धों के स्वास्थ्य के प्रति भी सजग होना पड़ेगा। वृद्धों की चिकित्सकीय, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक समस्या का हल ढूंढना होगा। पुणे विश्वविद्यालय के एन्थ्रोपोलॉजी विभाग में एमेरिटस फेलो प्रो. अमृता बग्गा मानती हैं कि बदलती परिस्थितियों ने पारिवारिक ढांचे को प्रभावित किया है। आज का युवा अपने अस्तित्व की लड़ाई में बाहर जाने को विवश है, जिससे घरों में मां-बाप अकेले रहने को विवश हैं। ऐसा नहीं है कि संवेदनाएं समाप्त हो गयी हैं, लेकिन तमाम कारणों से मां-बाप से बच्चों की दूरी बढ़ रही है।  महाराष्ट्र के जनजातीय क्षेत्रों में किए गए अपने अध्ययन में उन्होंने बताया कि 31 फीसदी वृद्ध मां-बाप अकेले रह रहे हैं। कोई भी ऐसा परिवार नहीं मिला, जहां के युवा काम की तलाश में वे बाहर न गए हों। ऐसे में सरकार और समाज को वृद्धजन के सम्मान और स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की दृष्टि से गंभीरता से विचार करना होगा ।


फारूक आफरीदी, 
अतिथि संपादक, दैनिक राष्ट्रदूत


गुरुवार, 26 मार्च 2015

रसूखदारों के कारण बैंकों की हालत बदहाल



संपादकीय
      
रसूखदारों के कारण बैंकों की हालत बदहाल

देश के प्रभावशाली लोगों द्वारा बैंकों में जमा आम जनता का धन कर्ज लेकर वापस नहीं लौटाने के चलते बैंकों की हालत बदहाल हो चली है। इस स्थिति के चलते सार्वजनिक बैंकों को बेहद परेशानी से गुजरना पड़ रहा है। केंद्र सरकार के वित्त राज्यमंत्री ने यह तथ्य राज्यसभा में स्वीकार किया है बैंकों के लिए गहरे संकट का कारण बन चुकी गैर- निष्पादित संपत्तियों (एनपीए) या खराब कर्ज की स्थिति यह है कि 95,122 करोड़ रुपए का एनपीए तो केवल    30 प्रभावशाली  रसूखदार डिफॉल्टर्स में ही बकाया चल रहा है। वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा की मानें और उनके द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के आंकड़ों पर निगाह डालें तो दिसंबर 2014 के अंत तक देश के सभी सार्वजनिक बैंकों का कुल एनपीए 2,60,531 (दो लाख साठ हजार पांच सौ इकतीस) करोड़ रुपए था। इनमें से शीर्ष 30 डिफॉल्टर्स पर 36.5 प्रतिशत एनपीए पर की राशि बकाया चल रही है, जिसे वे नहीं लौटा रहे हैं और बैंक उनके चक्कर काट-काट कर परेशान हो चुकी है। आरबीआई के अनुसार सितंबर 2014 के अंत तक 10 करोड़ या उससे ज्यादा एनपीए रखने वाले कर्जदारों की संख्या 2897 थी। इनके पास बैंकों का कुल 1,60,164 करोड़ रुपए बकाया पड़ा हुआ था। वहीं क्रेडिट कार्ड से जुड़े 7443 मामले सामने आए, जिनमें बैंकों की 29 करोड़ रुपए की पूंजी अटकी हुई थी, जो लाख कोशिशों के बावजूद वसूल नहीं हो सकी। सरकार मान रही है कि 95,122 करोड़ रुपये तो केवल 30 बड़े  कर्जदारों के पास है और 2,60, 531 करोड़ रुपए बैंकों का एक प्रकार से खराब कर्ज है। सरकार और बैंक इस चिंता में डूबे हुए हैं कि इन लोगों में फंसी ये 36.5 प्रतिशत राशि कैसे निकलवाई  जाये ताकि बैंकों की हालत सुधारी जा सके।

तीन वर्ष पहले के आंकड़े भी कमोबेश ऐसे ही थे। तब यह अनुमान लगाया गया था कि देश के बैंकिंग क्षेत्र के जोखिम गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) जून 2012 के 1.57 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर दो लाख करोड़ रुपए के पार पहुंच सकता है।ताजा आंकड़े बताते हैं कि उस समय लगाये गए अनुमान सही निकले और ये हालात आज भीजस के तस हैं बल्कि बदतर हालात ही हैंउद्योग संगठन (एसोचैम) ने तीन साल पहले जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ रहे दबाव से भी एनपीए में बढ़ोतरी हो रही है। जून 2012 में एनपीए का अनुपात 2.94 प्रतिशत था, जिसके बढ़कर 3.75 प्रतिशत पर पहुंचने का अनुमान है। रिपोर्ट में कहा गया कि जोखिम वाली संपत्तियों में बढ़ोतरी के रुख के जारी रहते प्रावधानों में वृद्धि होने, संपतियों की गुणवत्ता प्रभावित होने और कारोबार बढ़ाने के लिए अतिरिक्त पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ ही वित्तीय और चालू खाता बढ़ने से गैर निष्पादित संपतियों में बढ़ोतरी हो रही है। इसमें कहा गया कि उम्मीद से खराब प्रदर्शन करने वाले क्षेत्रों पावर, विमानन, राजमार्ग, माइक्रो फाइनेंस संस्थानों, बंदरगाहों, दूरसंचार और कई दूसरे कारकों से जोखिम वाली संपत्तियों में बढ़ोतरी हो रही है। इस प्रकार रिपोर्ट ने सीधे-सीधे सरकार के उपक्रमों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन हकीक़त यह भी है जिस तरफ एसोचेम ने उंगली नहीं उठाई कि इसके अलावा वे भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जो निजी क्षेत्र के बड़े प्रतिष्ठान हैं। इन प्रतिष्ठानों का राजनीति में काफी दखल और दबदबा है। वे इतने लम्बे रसूख वाले हैं कि उन पर बैंक अधिकारी चाहकर भी हाथ नहीं डाल सकते। सभी जानते हैं कि उन्हें अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक वरदहस्त प्राप्त है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि बैंकों के पुनगर्ठित ऋणों का प्रतिशत मार्च 2013 तक बढ़कर छ: प्रतिशत तक पहुंच सकता है। साथ ही यह भी कहा गया कि अदालती हस्तक्षेप, सुधार में विलंब, लागत को उपभोक्ताओ पर डालने में देरी, कर से जुड़े मामलों में अस्पष्टता से आर्थिक गतिविधियों के माहौल को खराब कर रहा है। सच तो यह है कि जिन कारणों को बताया या गिनाया गया, उस दिशा में सरकार ने कभी कोई ठोस कदम उठाना तो दूर बल्कि विचार ही नहीं किया गया, क्यों कि उन निहित स्वार्थ जुड़े हुए थे। अगर ये हालत बदस्तूर जारी रहते हैं तो वित्तीय घटा निरंतर बढ़ता ही रहने वाला है और हालात कभी काबू में नहीं आ सकते। दूसरी ओर लघु एवं मध्यम उद्यमों के प्रदर्शन के प्रभावित होने और कृषि क्षेत्र पर बने दबाव से बैंकों के एनपीए में बढ़ोतरी के पुख्ता संकेत मिल रहे हैं।

कुछ समय पूर्व देश की दो प्रमुख बैंकों के अधिकारियों द्वारा बैंक माफियाओं के साथ सांठगांठ को लेकर दायर की गयी याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीबीआई को जांच के आदेश दिए थे याचिका में आरोप लगाया गया था कि 'भारतीय स्टेट बैंकऔर 'स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंकके अधिकारियों ने एक साजिश के तहत गैर-निष्पादित संपतियां बेहद कम दामों में बिल्डर माफिया को बेच दीदिल्ली के एक उद्योगपति और मेसर्स विशाल गोपाल लिमिटेड के निदेशक सरोज कुमार बगारिया ने अपनी याचिका में कहा कि वर्ष 1999 में भारतीय स्टेट बैंक ने उनकी फर्म से संपत्ति गिरवी रखकर उसे पांच करोड़ रुपए का लोन दिया थालोन लेने के बाद फर्म घाटे में चली गयी और वह लोन चुकता नहीं कर सकीभारतीय स्टेट बैंक और स्टैंडर्ड चाटर्ड बैंक के कुछ अधिकारियों ने मिलकर उनकी संपति को गैर-निष्पादित संपति घोषित कर दी और उसे बिल्डर माफिया को बहुत कम दामों में बेच दियाइसे साजिश बताते हुए अदालत से दरख्वास्त की गयी थी कि वह उनकी शिकायत के आधार पर सीबीआई और बैंक प्रतिभूतियां एवं धोखाधड़ी प्रकोष्ठ को प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दे। इस पर अदालत ने प्रसंज्ञान लिया।
बैंकों के नियम अब बहुत कड़े किये जा रहे हैं और नये लोन व्यक्ति अथवा संस्था की नागरिक  (साख) को देखकर दिए जा रहे हैं जबकि हकीक़त यह है कि जिन लोगों पर बैंकों ने मनमाने ब्याज और हिडन चार्जेज लगाकर परेशां कर दिया और जिन्होंने अपने खाते सैटलमेंट के आधार पर बैंक की रकम अदा करदी उन्हें अभी भी सिविल रिपोर्ट में दोषी माना जा रहा है और न्य लोन नहीं दिया जा रहाअनेक प्रकरणों में 5 से 10 साल पुराने मामलों में सैटलमेंट के बावजूद उनकी सिविल साख को ख़राब रिपोर्ट के रूप में दर्ज किये हुए है जबकि उन्हें इस रिपोर्ट से हटा जाना चाहिए। एक बार किसी की गलती हो गयी और उसने बैंक से मामला सैटल कर लिया तो फिर भी उसे अपराधी या दोषी की श्रेणी में रखना कहां तक उचित है। कई मामलों में बैंकों ने सैटलमेंट के बावजूद खाते जारी रखे और मंथली स्टेटमेंट भेजते रहे और बिलिंग जरी राखी और नए सिरे सर लोगों को कर्जदार घोषित किये रखा और उनमें बकाया निकलते रहे। ऐसे मामले तत्काल समाप्त आकर लोगों को सिविल साख के दोष से मुक्त करने पर सरकार को विचार करना चाहिए। सरकार बेशक उन लोगों और प्रतिष्ठानों पर कानूनी कार्यवाही करे जो बैंकों से कर्ज लेकर वापस लौटा नहीं रहे। सरकार से यह बात भी छिपी नहीं है कि घोटालेबाज लोग और प्रतिष्ठान नाम बदल करके भी वही सब कुछ कर रहे हैं और उन्हें भ्रष्ट अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त है।
अतिथि संपादक
फारूक आफरीदी,
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार