सोमवार, 11 मई 2015

विज्ञान और तकनीकी संस्थाओं को विशेष तरजीह दी जाए

संपादकीय
विज्ञान और  तकनीकी संस्थाओं को विशेष तरजीह दी जाए
आज के इस वैज्ञानिक और टेक्नोलोजी के युग में इससे जुड़ी संस्थाओं और सरकारी प्रतिष्ठानों अथवा उपक्रमों को विशेष तरजीह देने की आवश्यकता है ताकि इनके जरिये जनता और सरकार के काम आसानी से हो सकें। देखने में आया है की इन संस्थाओं में तकनीशियनों और वैज्ञानिकों के पद खाली रहते हैं जिससे ऐसी संस्थाएं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पति । गौर तलब है की इन संस्थाओं की स्थापना पर करोड़ों रुपये खरक होते हैं लेकिन बाद में इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता और वे रेंगती रहती हैं।राजस्थान जैसे मरू प्रदेश की अपनी प्रकृतिक चुनौतियाँ हैं जिनसे निपटने में इन संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान ओ सकता है। उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि जोधपुर में रिमोट सेन्सिंग सेंटर इन दिनों बदहाली के दौर में है जिसके सुचारु संचालन के लिए सरकार को तत्काल तवज्जो देने कि जरूरत है।
रिमोट सेन्सिंग सेंटर ने स्थापना से लेकर अब तक कई महत्वपूर्ण काम अंजाम दिये है। मारू विकास कार्यक्रम के तहत इस संस्था की स्थापना वर्ष 1979 में इस सोच के साथ की गयी थी की मरुस्थल मीमे रहा रहे नागरिकों की परेशानियाँ कम करने में वैज्ञानिक और तकनीकी योगदान से कई कुछ बदलाव लाया जा सके ग। इसकी अच्छी शुरुआत भी हुई लेकिन शासन ने उतना ध्यान नहीं दिया जिसकी अपेक्षा की गयी थी। इस केंद्र ने नतीजे  देने में भी कोई कमी नहीं रखी बल्कि यहाँ के वैज्ञानिकों ने अपनी जान लगाकर कम किया। प्रथम निदेशक बी.वी. मोघे और डा.एन.के. कालरा ने अपने समर्पण के कारण खूब ख्याति अर्जित की और इस संस्थान का सम्मान राष्ट्रीय स्तर बढ़ाया। केंद्र ने उपग्रह से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर मरुस्थलीय जिलों की भौगोलिक और प्राकृतिक सम्पदा पर अनेक महत्वपूर्ण प्रतिवेदन तैयार किए हैं।इन प्रतिवेदनों को बहुत एहनत और वैज्ञानिक सूझबूझ से काफी समय लेकर तैयार किया गया था। वर्ष 2000 में प्रदेश में सूखे और अकाल के दौरान इस सुदूर संवेदन केंद्र ने इन्दिरा गांधी नहर परियोजना के के नहरी क्षेत्र के वाटर लोगिंग क्षेत्रों की उपग्रह सूचना प्रणाली से पहचान की थी। इसके आदर पर राजस्थान में अकालग्रस्त पशुधन के लिए चारा उगाने का मार्ग प्रशस्त हो सका अन्यथा आँय प्रदेशों से महंगा चारा मंगवाकर चारे की जरूरत को पूरा किया जा रहा था और इससे रदेश को कई अर्थभार वहन करना पड़ रहा था। इस संस्थान ने प्रदेश के 100 से अधिक  बांधों की भराव क्षमता के विकास का काम भी किया जो उपग्रह सूचना आधारित प्रणाली के कारण ही संभव हो सका था। अजमेर की आनासागर झील का जो वर्तमान स्वरूप आज हम देख रहे हैं, इसकी भराव क्षमता के विकास और विस्तार को सुदृढ़ बनाने में भी इस केंद्र की महत्वपून भूमिका रही है। यह वही संस्था है जिसने कुछ वर्षों पहले जयपुर के सीतापुरा में हुए भयंकर अग्निकांड के बाद वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों और उसकी तीव्रता का विशद अध्ययन करके सरकार को जानकारी उपलब्ध करवाई थी। इससे इस संस्था के महत्व और औचित्य को भलीभाँति समझा और अनुभव किया जा सकता है।
यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि अगर इस संस्थान के पास वर्तमान में पर्याप्त तकनीकी और वैज्ञानिक जनशक्ति होती तो हाल ही प्रदेश में हुई बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि के बाद किसानों को दिये जाने वाले मुआवजे के लिए मानव द्वरा तैयार गिरदावरी रिपोर्ट पर निर्भर नहीं रहन पड़ता जिस पर पक्षपातपूर्ण होने के आरोप लगते रहे हैं। यदि उपग्रह सूचना प्रणाली से गिरदावरी होती तो उस में कोई दोष नहीं ढूंढा जा सकता था बल्कि वह मानव निर्मित गिरदावरी के मुक़ाबले सही, सटीक और समय पर भी होती। इससे सरकार को यह लाभ होता कि वह अपनी रिपोर्ट यथाशीघ्र केंद्र सरकार को भिजवा देती और फसलों के खराबे के आधार परर किसानों को उचित मुआवज़ा मिलने का रास्ता तय होता और किसानों को भी गिरदावरी में कोई चूक या गलती रह जाने की शिकायत नहीं रहती।
सुदूर संवेदन केंद्र यदि पूरी क्षमता के साथ गतिशील होता तो उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर सही सह गिरदावरी होने में मदद मिलती। वर्तमान में यह केंद्र पूरी गति के स्था इसलिए काम नहीं कर पा रहा है कि इसमें कोई पूर्णकालिक निदेशक ही नहीं बल्कि पूर्णकालिक वैज्ञानिक भी सेवारत नहीं है।एक समय था जब इस केंद्र में 25 वैज्ञानिक 100 से आधी का स्टाफ हुआ करता था।इनमें से अनेक सेवानिवृत हो चुके हैं और शेष को सरकारी आदेश से अपने मूल विभागों में भेज दिया गया है। यहाँ हालत यह है कि संस्था के वैज्ञानिको के सेवा नियम ही नहीं बने। ऐसे में उनके काम करने और हित सुरक्षा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। यह विडंबनापूर्ण ही था। यह नीतियाँ और कार्यक्रम बनाने वकों का दोष ही माना जाएगा कि लंबे समय से काम कर रही एक संस्था कि घोर उपेक्षा की गयी।अब भी समय है, इस गलती को सुधारा जा सकता है। जिस संस्था ने हमेशा प्रशंसा बटोरी, उसकी इतनी दुर्दशा किसी भी रूप में समझ नहीं आती। केंद्र में कोई भी सरकार रही हाओ विज्ञान को हमेशा बढ़ावा देने के प्रयास रहे हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री ने डिजिटल इंडिया का नारा दिया है। इसके अनुसरण में राजस्थान में डिजिटल राजस्थान की बात भी बराबर की जाती रही है। डिजिटलाईजेशन या कंप्यूटर के क्षेत्र में विकास से ही सम्पूर्ण विकास संभव नहीं है।आज समग्र विकास की आवश्यकता भी है। ऐसे में विज्ञान और तकनीकी संस्थानों को सशक्त बनाए बिना विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।यह केवल एक रिमोट सेन्सिंग सेंटर का सवाल नहीं है बल्कि इस प्रकार की जितनी भी संस्थाएं हैं उनको पुनर्जीवित करने पर साकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए। ऐसी संस्थाओं के लिए आवश्यक पदों के सर्जन से लेकर उनमें कार्य करने वाले वैज्ञानिकों और तकनिशयनों के पदोन्नति के द्वार भी खोले जाने चाहिए। इन संस्थाओं को ऐसा वातावरण मिले कि वहां काम करने वाले सभी लोग अपनी सेवाएँ समर्पित भावना के साथ दे सकें। वैज्ञानिकों को केंद्र सरकार हमेशा से सम्मान देती आयी है और हमारे वैज्ञानिकों ने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं जिसकी पूरे विश्व में खास पहचान है। इस पहचान को बनाए रखने का का काम सरकार का है। खास तौर से जब बात राजस्थान की हो तो विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्यों की यह प्रदेश अभी भी वैज्ञानिक अनुसन्धानों का पूरा तो दूर किंचित लाभ भी नहीं उठा पाया है। मुख्यमंत्री जी को इस मामले में प्रसंज्ञान लेकर वैज्ञानिक अनुसन्धानों को बढ़ावा देने में पहल करने की जरूरत है। साथ ही संबन्धित विभाग को भी इसके समुत्थान के लिए प्रेरित करना चाहिए। 
अतिथि संपादक
फ़ारूक आफरीदी
लेखक एवं पत्रकार      

     

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