रैन बसेरों को लेकर प्रशासन को आखिर चिंता क्यों नहीं होती !
सर्दियों
का मौसम आते ही बेसहारा लोगों को बचाने के लिए बनाए जाने वाले रैन बसेरों को लेकर
प्रशासन को आलोचनाएँ झेलनी पड़ती हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि इंतज़ामों में कोताही की
शिकायतों का सामना करना पड़ता है जबकि ये व्यवस्थाएं प्रशासन का दायित्व है। अगर
यथासमय सारी व्यवस्थाएं ठीक से हो जाएँ तो भला किसी को क्या शिकायत रह जाएगी।
लेकिन,अक्सर यह देखा जाता है कि फटकार खाये बिना कोई काम सिरे चढ़ता ही नहीं।
ताजा आंकड़ों की बात करें तो देश
के शहरी क्षेत्रों में ही 26 करोड़ मकानों की जरुरत है। भारत के सविंधान का इक्कीसवां
अध्याय देश के हर नागरिक को रहने की सुविधा उपलब्ध कराने की गारंटी देता है। पिछले साल पांच मई को सुप्रीम
कोर्ट ने भी सभी राज्य सरकारों और केंद्र
सरकार को आदेश दिया था कि वे जरूरतमंदो के लिए "रैन बसेरे" बनाये जाएँ जहां गरीब सम्मानजनक तरीके से रात गुजर सकें। सुप्रीम कोर्ट ने बेसहारा लोगों को रात खुले आसमान के नीचे न
बिताना पड़े, इसके
लिए प्रदेश सरकारों को सख्त निर्देश दिए हैं। साथ ही रैन बसेरों को लेकर की जाने वाली व्यवस्थाओं से सबंधित रिपोर्ट भी तलब की । यह भी कहा गया था कि देश के सभी
शहरों में एक लाख की जनसंख्या पर कम से कम एक रैन बसेरा जरूर बनाया जाए। इन रैन बसेरों में
आश्रय-विहीन गरीबों के लिए
मुफ्त में बिस्तर, कम्बल, रजाई गद्दे, भोजन, पानी, शौच-स्नान, सर्दियों में अलाव जलाने और जीवन
रक्षक दवाओं की व्यवस्था होनी चाहिए हैं । कोर्ट के आदेशानुसार घर पक्का और स्थाई होना
चाहिए।बावजूद इसके नगर निगम के अधिकारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अनदेखी
करते
रहे हैं।
यही कारण हैं कि रैन बसेरों की व्यवस्था
राम भरोसे चलती
है ।
आमतौर पर रैन बसेरों की व्यवस्था ठेकों पर
दी जाती है । निगम अधिकारी ठेका देकर भूल जाते हैं कि उनकी आगे भी कोई ज़िम्मेदारी
है। सारा काम ठेका एजेंसियों के भरोसे छोड़ दिया जाता है । इन रैन बसेरों कि
व्यवस्था की कोई मॉनिटरिंग नहीं होती । उधर ठेका
एजेंसियों को भी यह शिकायत रहती है कि निगम अधिकारियों की कार्यप्रणाली इतनी दोषपूर्ण होती है कि उन्हें काम छोड़ कर
भागना पड़ता है।राजधानी जयपुर ही नहीं प्रदेश के अन्य नगरों और बड़े कस्बों में
लोगों को शीतलहर से बचाने की चिंता गहरी होती जा रही है । अभी यद्यपि ठंड की शुरुआत नहीं हुई है लेकिन प्रशासन की लापरवाही
को देखते हुए लगता है कि
आने वाले समय में बेसहारा लोगों को रात खुले आसमान के नीचे ही बितानी
होगी। कायदे से तो रात में वहां ठहरने वालों को भोजन भी
उपलब्ध कराना होता है
लेकिन इस दिशा में कोई ध्यान नहीं देता ।
ठेकेदारों को आम तौर पर शिकायत रहती है कि
शुरू से ही रैन बसेरे
में भोजन आपूर्ति करने के बिल का
लंबे समय तक भुगतान नहीं होता, बिल गुम कार्डिए जाते हैं या कमीशन मांगा जाता है। रात में ठंड में खुले आसमान के नीचे सोने
वालों को रैन बसेरे तक लाने वाली गाड़ी का किराया तथा टेंट हाउस के कपड़े,
बर्तन आदि का पेमेंट भी समय पर नहीं किया जाता। रैन बसेरों में चौकीदार भी होने चाहिए लेकिन इन व्यवस्थाओं को शुमार
ही नहीं किया जाता ।रैन बसेरों के बिस्तरों
की धुलाई तक नहीं होती।इन बसेरों
में लोग मजबूरी में ही आते हैं लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं बल्कि निगम अधिकारी
इसे एक भार समझते हैं। निगम
अधिकारी जब तक उदासीन रहेंगे और व्यवस्थाओं को लेकर गंभीर नहीं
होंगे तब तक सुधार की कोई गुंजाईश नहीं। वहाँ रहने वाले इसे मानव अधिकार नहीं
बल्कि सरकार का उपकार मानते हैं, वे किसी से अपना दुखड़ा नहीं रोते, यही कामजोरी निगम
अधिकारियों के लिए फायदेमंद साबित होती है ।कई बार ज्यादा दबाव पड़ता है तो रैन बसेरे तो स्थापित कर दिये जाते हैं लेकिन वहाँ बुनियादी सुविधाएं नहीं होती। सामाजिक संगठन शिकायत करते रहते हैं लेकिन निगम
अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
राज्य
सरकार ने राजधानी जयपुर में पर्याप्त रैन बसेरे स्थापित करने का दावा किया है। इस वर्ष भरी बरसात हुई है और पूरे राज्य में कड़ाके की ठंड पडने की संभावनाओं से इनकार नहीं
किया जा सकता। ऐसे में प्रशासन को चेत जाने की जरूरत है । इन रैन बसेरों में ज़्यादातर
वे स्त्री पुरुष ही शरण लेते हैं जो अपने
परिजनों के इलाज के लिए या फिर रोजगार की तलाश में राज्य के कौने कौने और विभिन्न
प्रदेशों से आते हैं। इनमें अधिकांशतः गरीब एवं बेसहारा लोग ही होते हैं।लोक
कल्याणकारी सरकार का इनके प्रति विशेष दायित्व बनता है।
जयपुर
में वर्तमान में ईदगाह दिल्ली रोड,सांगानेरी गेट,
गांधीनगर रेलवे स्टेशन,सवाई मानसिंह अस्पताल और जेके लोन, सी स्कीम, मालवीय नगर, खासा
कोठी,हवाई अड्डा और गोपालपुरा के पास,सीकर
रोड, अल्का सिनेमा के पास और जलेब चौक क्षेत्र में लगभग 30
रैन बसेरे हैं जिनमें एक दर्जन अस्थाई हैं । एक अनुमान के अनुसार निगम क्षेत्र में
8-9 हजार लोग बेघर हैं जो खुले आसमान के नीचे गुजर-बसर करते है। रैन बसेरों में महिलाओं के लिए अलग से व्यवस्था,भोजन,पानी बाथरूम,शौचालय की पर्याप्त व्यवस्थाओं का
ध्यान विशेष रूप से रखा जाना चाहिए ताकि उन्हें और शराबियों और नशेड़ियों से निजात मिल सके।
उधर सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों के प्रतिनिधियों का
कहना है कि रैन
बसेरे मापदंड के मुताबिक नहीं हैं। सामाजिक संगठन चार साल पहले भी रैन बसेरों का सर्वे कर अदालत में रिपोर्ट पेश कर चुके है। इन संगठनों उस समय राज्य के जयपुर सहित पाँच बड़े
शहरों में 51 रैन बसेरे बनाने की बात कही थी । इन चार
सालों में स्थितियों मे काफी बदलाव आया है। अब तो अकेले जयपुर में इतने रैन बसरोन
की जरूरत है और इतने ही अन्य बड़े शहरो में
चाहिए। सरकार इस काम को अकेले कर सकती है और कोई बड़ी बात नहीं है। इसके साथ ही
सामाजिक और स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद भी ली जा सकती है। शीत ऋतु को एक आपदा के
रूप में लिया जाना चाहिए और यह प्रयास रहना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति ठंड का शिकार
होकर मौत का ग्रास न बने।
अब तक
जयपुर में
सरकारी इंतजामों के बावजूद अनेक ग़रीब लोग रात फुटपाथ पर ही गुजार देते हैं. खास तौर से रिक्शा चालकों के सामने
अपने रिक्शों कि हिफाजत को लेकर अक्सर यह परेशानी बनी रहती है। ऐसे में पुलिस गस्त
का माकूल प्रबंध हो तो रैन बसेरों में रहने वालों की जान और माल दोनों की हिफाजत
भी हो सकती है। कोर्ट कह चुका है कि सरकार सभी एजेंसियों के साथ तालमेल
बिठाकर रैन बसेरों को सुधारें। अदालत की भावना और आदेश दोनों का
सम्मान होना चाहिए। दिल्ली की एक अदालत ने तो इस बात के लिए भी फटकार लगाई कि रैनबसेरों में पुलिसकर्मी लोगों को तंग करते हैं
और सरकार ने इस मामले में एनजीओ की शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया।इत्तफाक से इस वर्ष निगमों और नगर
निकायों के चुनाव हो रहे हैं । अभी इनमें जनप्रतिनिधि नहीं हैं। ऐसे में
अधिकारियों, जिला प्रशासन,आपदा प्रबंध विभाग सभी का दायित्व
विशेष रूप से बढ़ जाता है।शासन को यह काम प्राथमिकता से देखना होगा कि इसमें कहीं भी
किसी तरह की कोताही तो नहीं बरती जा रही है।
–फारूक आफरीदी
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