रविवार, 7 दिसंबर 2014

मानव अधिकारों का हनन कब तक होता रहेगा !



मानव अधिकारों का हनन कब तक होता रहेगा !

कहने को तो मानव अधिकारों के तहत प्रत्येक व्यक्ति को वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,अपनी तथा परिवार की सुरक्षा का अधिकार है।बंधुआ मजदूरी निषिध्द है।किसी को भी शारीरिक यातना नहीं दी जानी चाहिए। हर नागरिक को अपने देश की सरकारी नौकरी प्राप्त करने का पूरा अधिकार है।प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने तथा स्वतंत्रतापूर्वक समाज के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार है।प्रत्येक बालक को संसार में जीने, उचित देखभाल, पोषण, स्वास्थ्य सुविधाएं एवं शिक्षण के समान अवसर पाने का अधिकार है। साथ ही अपने अधिकारों एवं भलाई के लिए क़ानूनी सुरक्षा पाने का अधिकार है।इसके विपरीत सच यह है कि मानव अधिकार उनको भी बहुत मुश्किल से हासिल होते हैं जो पढे लिखे या जागरूक हैं।स्वतः मानव अधिकार प्राप्त होना अभी भी दूर की कोड़ी है। भारत में 28 सितंबर 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया। 12 अक्‍टूबर, 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया। मानव अधिकारों में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार आते हैं, जैसे- बाल मजदूरी ,एचआईवी एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार आयोग के कार्यक्षेत्र में आते हैं। हम देख सकते हैं कि इनमें से कितने अधिकारों को आसानी से हासिल किया जा सकता है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और दूसरे मानवाधिकार संगठनों के आंकड़ों के मुताबिक 2007 से 2012 के दौरान करीब 12 हजार व्यक्तियों की हिरासत के दौरान मौत हुई थी जबकि इस दौरान हिरासत में यातना देने के 3500 से अधिक मामले सामने आये थे। मानवाधिकार आयोग के पास 2007 से 2012  के दौरान न्यायिक और पुलिस हिरासत में बलात्कार के 39 मामले भी आये थे। आयोग ने 2011-12 में मानवाधिकारों के उल्लंघन के 94985 मामले दर्ज किये थे। इनमें सबसे अधिक 46187 मामले अकेले उत्तर प्रदेश के ही थे। इसके बाद दिल्ली का नंबर था जहां इस अवधि में 7988 मामले दर्ज किये गये थे। चूंकि ये मामले सीधे तौर पर मानवाधिकारों के हनन से जुड़े होने से मानवाधिकार आयोग हस्तक्षेप करता है। आयोग संबंधित राज्य सरकार और पुलिस प्रशासन से भी जवाब तलब करने के बाद पीडि़त पक्ष को समुचित मुआवजा देने का आदेश भी देता है।ऐसे में समाज विज्ञानियों का सुझाव है कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से प्रत्येक जिले में मानवाधिकार अदालत स्थापित की जानी चाहिये। हिरासत में कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा करने और उन्हें किसी भी प्रकार की यातना नहीं देने के बारे में न्यायालय के अनेक निर्देशों के बावजूद चूंकि पुलिस और प्रशासन के रवैये में अपेक्षित बदलाव नहीं आ रहा है, इसलिए पुलिस को अधिक संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री स्मार्ट पुलिस बनाने की बात कह रहे हैं लेकिन ऐसा कब तक हो पाएगा जबकि देश भर में थानों में लाखों पद खाली हैं। उनके लिए कानून और व्यवस्था बनाए रखना ही मुश्किल हो रहा है। उधर राज्यों के मानवाधिकार आयोगों में बड़ी संख्या में अध्यक्ष अथवा सदस्यों के रिक्त पड़े पदों को भरने का काम भी समय पर पूरा नहीं होता। स्टाफ की कमी तो आयोग के कामकाज को पंगु बना ही रही है। विभिन्न एनजीओ समय-समय पर जनहित याचिका लगाते रहते हैं और अदालतें आदेश पारित करती हैं तो सरकारें पद भरने की प्रक्रिया प्रारम्भ करती हैं जिसमें काफी समय बेकार चला जाता है। कुल मिलाकर इस मामले में सरकारों का रवैया ढुलमुल या लापरवाहीपूर्ण ही अब तक रहा है। गौरतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय संघठन हयूमन राइट्स वाच की 175 देशों में मानवाधिकार स्थिति का जायजा लेती एक रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि यहां महिलाओं, बच्चों और आदिवासियों के मानव अधिकारों से जुड़ी समस्याएं ज्यादा हैं। इसका मूल कारण सभी राज्यों में मानव अधिकार आयोगों का सक्रिय नहीं  होना है। मानव अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसंबर 1948 में एक प्रस्ताव पारित किया था।तभी से विश्व के सभी देशों ने 1950 से 10 दिसंबर को मानव अधिकार दिवस मनाना शुरू किया, लेकिन इसके मर्म को किसी ने आज तक गहराई से अनुभव नहीं किया। यही कारण है कि यह दिवस औपचारिक बनकर रह गया है। यह आश्चर्यजनक है कि महासभा के फैसले के बावजूद 15 वर्षों तक तो कई राज्यों में आयोग बनाने के गंभीरतापूर्वक प्रयास ही नहीं किए गए और जहां आयोग बन गए वहां भी आधे-अधूरे मन से काम हो रहा है। अदालतें राज्य सरकारों को नोटिस जारी करती रहती है और सरकारी वकील मोहलत मांगते रहते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत समय बर्बाद हो जाता है। यह काम सरकार की प्राथमिकता में कभी रहा ही नहीं। यही कारण है कि आए दिन मानव अधिकारों का खुले आम हनन हो रहा है और कोई देखने वाला नहीं है। शहरों- कस्बों में अतिक्रमण के नाम पर कच्ची बस्तियों के सैंकड़ों घर उजाड़ दिये जाते हैं और उनके पुनर्वास का कोई इंतजाम नहीं नहीं किया जाता। इसी तरह देश की जेलों में ऐसे अनेक कैदी हैं, जो अपने मामलों की सुनवाई के इंतजार में बैठे बेवजह सजा काट रहे हैं, यदि उन्हें समय पर न्याय मिल जाता तो वे अपने परिवारों के साथ होते।जितनी सजा उन्हें मिलनी चाहिये उससे ज्यादा समय उन्होंने हिरासत में बिता दिया और ना जाने कितना समय उन्हें बंदी जीवन बिताना पड़ेगा। गरीब और अनपढ़ लोगों को यह ध्यान ही नहीं कि वे फ्री लीगल-एड के तहत अपनी पैरवी का अधिकार रखते हैं।

इस वर्ष जुलाई में गुजरात सरकार ने प्रदेश में जेल व पुलिस हिरासत में एक साल में 48  मौतें होने की जानकारी सार्वजनिक की । इसी दौरान महिला प्रताड़ना के भी 11 हजार 479 आपराधिक मामले दर्ज हुए। हालांकि राज्य मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट से सामने आए ये आंकड़े तीन साल पुराने हैं, रिपोर्ट गुजरात विधानसभा में प्रस्तुत की गई।राज्य सरकार की ओर से सदन में प्रस्तुत गुजरात मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2010-11 के दौरान अहमदाबाद शहर में जेल में 19 लोगों की मौतें हुईं।गृह राज्य मंत्री ने आयोग की रिपोर्ट सदन में तीन साल विलम्ब से प्रस्तुत करने का कारण प्रस्तुत करते हुए कहा कि प्रदेश में गुजरात मानवाधिकार आयोग का कार्यालय 2006 से कार्यरत हुआ था। शुरूआत में सृजित स्वीकृत पदों में से कई रिक्त रहे। इससे कम कर्मचारी संख्या बल के चलते रिपोर्ट तैयार करने में विलम्ब हुआ।जाहिर है आयोग व्यवस्था को शक्तिशाली बनाना होगा ।
समानता के अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले राजधानी के संगठन अधिकार के अध्यक्ष राजीव यादव ने कहाकि बटला हाउस, सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ या आरुषि हत्याकांड जैसे मामलों में मानवाधिकार का मुद्दा तुरंत सुर्खियों में आ जाता है, लेकिन एक आम आदमी के पुलिस हिरासत में आए दिन होने वाले मानवाधिकार हनन पर कोई ध्यान नहीं देता। देश में मानवाधिकार हनन सबसे ज्यादा पुलिस हिरासत में ही होता है। गरीब तबके के लोगों के मानवाधिकारों का हर क्षेत्र में हर वर्ग द्वारा हनन किया जाता है। ऐसे में उनके अधिकारों की रक्षा के लिए देश में कोई मुस्तैदी नहीं दिखाई देती। यूं राजनैतिक दल सोशियल इंजीनियरिंग की खूब बातें करते हैं लेकिन पुलिस भर्ती में यह दिखाई दे तो भी काफी हद तक मानव अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ सकती है। पुलिस में सामाजिक संतुलन पीड़ितों को न्याय दिलाने में सहायक सिद्ध हो सकता है। 
 -फारूक आफरीदी


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