शनिवार, 6 दिसंबर 2014

आखिर हम प्रदेश की पानी की समस्या से कब उभरेंगे ?




आखिर हम प्रदेश की पानी की समस्या से कब उभरेंगे ?

       पिछले दो तीन वर्षों से प्रदेश में मानसून की भरपूर बारिश हो रही है, प्रकृति की इस अनुकंपा को हम कब तक बिसराते रहेंगे ? कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छी वर्षा के  बावजूद हमारे अनेक इलाकों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची रहती है। एक तरफ किसानों को फसलों की सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिलता तो दूसरी ओर नागरिकों के लिए पीने का माकूल प्रबंध नहीं हो पा रहा है । अब तो उद्योगों के लिए भी पानी की कमी  का संकट गहराने लगा है।
       उद्योग हमारे प्रदेश के बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराने में सबसे बड़े मददगार हैं । उद्योगों की जरूरतों को हम नजर अंदाज करके नहीं चल सकते। वर्तमान उद्योगों के सामने ही जब पानी का संकट मौजूद है तो हम निकट भविष्य में स्थापित होने वाले सैंकड़ों नए उद्योगों की स्थापना को कैसे सुनिश्चित कर पाएंगे, यह एक यक्ष प्रश्न हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है। हमें इसका हल ढूंढना होगा।अभी जो खबरें मिल रही हैं उसके मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले प्रदेश के उद्योगों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं है और ऐसे उद्योग लगाने की सलाह दी जा रही है जिन में पानी का उपयोग अधिक ना होता हो। इस सलाह को मान भी लिया जाए तो उन हजारों उद्योगों का क्या हश्र होगा जो दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरीडोर के तहत आने वाले वर्षों में राज्य के 10-12 जिलों में विकसित होंगे और बड़े रोजगार का जरिया बनेंगे। सारे उद्योग आईटी इंडस्ट्री से जुड़े तो नहीं हो सकते । हमें उद्योगों के लिए हमें पानी का प्रबंध करना ही होगा ।
       तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के समय देश की नदियों को जोड़ने की परियोजना की बात चली थी, जिसे यूपीए सरकार ने भी सिद्धांततः स्वीकार कर काम प्रारम्भ कर दिया था, उसे त्वरित गति से आगे बढ़ाने की जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों में नदियों को जोड़ने की योजना को खासा समर्थन मिला है। भारत में 37 नदियों को तीस कड़ियों, दर्जनों बाँधों और हजारों मील लंबी नहरों द्वारा जोड़ना 10,000 करोड़ रूपये का एक भागीरथ प्रयास होगा। इस योजना पर तेजी से अमल के साथ इस काम से जुड़े सरकारी महकमे को मुस्तैद करना होगा और काम की प्रगति की सख्ती से मॉनिटरिंग करनी होगी। अब देश और प्रदेशवासी इस मामले में और अधिक इंतजार नहीं कर सकते। उदारीकरण के जिस रास्ते पर यह देश चल पड़ा है उसमें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों से इस महत्वपूर्ण परियोजना के लिए धन जुटाना मुश्किल काम नहीं रह गया है। इतना तो तय मानिए कि यदि हम निकट भविष्य में जल का समुचित प्रबंधन नहीं कर पाये तो वस्त्र, केमिकल, औषधि, आयल आदि उद्योगों की बढ़ती हुई संभावनाओं से हाथ धो बैठेंगे। साथ ही वर्तमान में विद्यमान उद्योगों को भी लंबे समय तक नहीं टिकाये रख सकेंगे। निरंतर बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप रेल सेवाएँ बढ़ रही हैं तो बस बेड़े में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। चौपहिया और दोपहिया वाहन भी सड़कों पर हर साल लाखों की संख्या में बढ़ जाते हैं।यह भी संभव नहीं कि बसों, ट्रकों,कारों और अन्य वाहनों की धुलाई का प्रबंध ना करें। इनके लिए भी अनिवार्य रूप से पानी चाहिए।
       इस वर्ष प्रदेश में अच्छी वर्षा के बावजूद जैसलमेर जिले के 70 गावों में अकाल के हालात होने से सरकार को उन्हें सूखाग्रस्त घोषित करना पड़ा है । वहाँ पानी के विशेष प्रबंध के साथ लोगों के लिए रोजगार का भी प्रबंध करना होगा। यह तो कहा जा सकता है कि इसके लिए सरकार को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी लेकिन वहाँ के किसानों को जो परेशानी उठानी पड़ रही है, उसकी कोई भरपाई नहीं हो सकती, इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बरसात का करोड़ों लीटर पानी बहकर हर वर्ष फिजूल चला जाता है, उसके संरक्षण का कारगर उपाय हम नहीं कर पा रहे हैं। पंजाब से नहरों के जरिये अंतरराज्य समझोते के तहत जो पानी निर्धारित मात्रा में राज्य को मिलना चाहिए, उसका भी काफी क्षरण हो जाता है। नहरें काफी मरम्मत मांगती हैं। पानी की चोरी जैसी गंभीर समस्या से जूझना पड़ता है। इनका समाधान राज्य और इसकी जनता के हित में जरूरी है। पानी की बढ़ती कमी के कारण जल संरक्षण को आज की जरूरत बना दिया है। घरेलू, कृषि तथा द्योगिक स्तर पर जलसंरक्षण को बढ़ावा देना चाहिये। इसका मतलब यही है कि हमें अपनी जीवन शैली तथा क्रॉप पैटर्न (फसल चक्र) का पुनरीक्षण करना होगा ताकि पानी की मांग को सफलतापूर्वक पूरा किया जा सके।
       बहरहाल प्रदेश की पानी की जो समस्या है, उससे सरकार भी अपरिचित नहीं है। भूजल विभाग की मानें तो प्रदेश में 243 ब्लाक्स में से 172 ब्लाक्स पूर्णतया डार्क जोन में हैं और शेष 67 में भी कमोबेश यही हालात हैं। कोई बीसेक ब्लॉक ही मुश्किल से ऐसे बचे हैं जहां स्थिति संतोषजनक कही जा सकती है। आज भी प्रदेश के ऐसे कई इलाके हैं जहां फ्लोराइड की मात्रा बहुत अधिक है । ऐसा पानी पीने से  कुबडापन और अन्य बीमारियाँ हो जाती हैं। आजादी के 68 सालों के बावजूद हम पानी के वैज्ञानिक तरीके से संचयन और इस्तेमाल किए पानी की फिर से रि-साइकिलिंग कर उसका दुबारा उपयोग करने की कोई कारगर योजना बनाकर लागू नहीं कर पाये, यहाँ तक कि हमारे पुरखों द्वारा विकसित और बहु-उपयोगी परंपरागत जल संचयन प्रणालियों का इस्तेमाल करना तो दूर उन्हें ध्वस्त करने में ही आगे रहे हैं। अपने निहित स्वार्थों के आगे हमने उन प्रणालियों के संरक्षण की तरफ ध्यान देने की बजाय अतिक्रमण करने और उन्हें बर्बाद करने में पूरी ताकत झोंक दी है । यहाँ तक कि न्यायालयों के प्रसंज्ञान को भी बेअसर कर दिया गया है।
       प्रश्न यह है कि अब भी अगर हम ना संभले तो कब संभलेंगे। पानी बचाने के लिए समय-समय पर  कानून भी बने तो पानी बचाओ के नारे भी खूब लगे, किन्तु हमारी ढिठाई के आगे सभी बेअसर साबित हुए हैं। जल संरक्षण के लिए हर पार्टी की सरकार ने जलचेतना अभियान चलाये, वे भी ढाक के तीन पात जैसे ही साबित हुए। जन चेतना के नाम पर समाचार-पत्रों, टीवी और अन्य माध्यमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए लेकिन हालात जस के तस हैं। कानून का सख्ती से पालन होता तो आज नतीजे कुछ और ही होते। जनता की मांग के दबाव और असंतोष को दूर करने के लिए जल संसाधन विभाग करोड़ों रुपये लागत की योजनाएँ तो बना देता है, लेकिन वे अदूरदर्शिता की भेंट चढ़ जाती हैं और नागरिकों को इनका लाभ नहीं मिल पाता। ऐसे में विभाग के अभियन्ताओं को उत्तरदायी बनाने की भी सख्त जरूरत है। उन पर यह दायित्व हो कि जितने लोगों के लिए योजना बने उतने लोगों को उसका वास्तविक रूप से लाभ मिले, साथ ही योजना हर हाल में निर्धारित अवधि में पूरी हो। योजना मानक स्तर की हो और विलंब के दोषी अधिकारी, कर्मचारी तथा ठेकेदार दंडित हों और उनके साथ कोई नरमी नहीं बरती जाए।  
 -फारूक आफरीदी

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