शनिवार, 6 दिसंबर 2014

देश हित में नहीं सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं



देश हित में नहीं सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं

       केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने देश में इस वर्ष अक्तूबर तक सांप्रदायिक हिंसा के जो आंकड़े पार्लियामेंट के पटल पर प्रस्तुत किए हैं, वे गौर करने की अपेक्षा करते हैं।सवाल यह नहीं है कि किस राज्य में दंगे ज्यादा या कहां कम हुए बल्कि विचारणीय यह है कि ये दंगे या उनमें होने वाली बर्बरता और हिंसा की आग को आगे बढ्ने से कैसे रोका जा सकता है। साथ ही यह जरूरी है कि हिंसा के शिकार लोगों और परिवारों को जल्दी से जल्दी न्याय दिलाया जाए और दोषी लोगों को इतनी कड़ी सजा मिले कि उससे दूसरे लोगों को कड़ा सबक मिले।यह सभी जानते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा निहित स्वार्थों के कारण ही होती या सुनियोजित रूप से करवाई जाती है, हिंसा अपने आप कभी नहीं होती। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के 67 साल पूरे होने के बावजूद भारत आज भी बर्बरता के युग में जी रहा है, जबकि दुनिया चाँद पर पहुंच गयी है, हमारे ज्ञान-विज्ञान का दायरा काफी बढ़ गया है। लेकिन,अब समय आ गया है जब हम देश को अंतर्राष्ट्रीय बदनामी से बचाएं और विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ें। भारत के सामने आज वैसे भी भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद,जातिवाद,नक्सलवाद,आतंकवाद,गरीबी,बेकारी आदि असीम चुनौतियां मौजूद हैं। सांप्रदायिक हिंसा देश को कमजोर कर रही है, हमारे विकास का मार्ग अवरुद्ध कर रही है। देश की जनता इस बात से बेखबर नहीं है कि स्वार्थ की राजनीति करने वालों के कारण बेकसूर और मासूम लोगों को सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बनाया जाता है। समर्थ और शक्तिमान लोगों तक कभी इसकी आंच तक नहीं पहुंचती।
       अगर हम सांप्रदायिक हिंसा के आंकड़ों की बात करें तो पाएंगे कि इसमें उत्तर प्रदेश राज्य सबसे आगे है जो कभी सांप्रदायिक सदभावना का प्रतीक रहा है।सदभाव की संस्कृति देश की शानदार विरासत रही है। सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाले इस विरासत को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते हैं।सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में आसानी से न्याय नहीं मिलता या इतना देरी से मिलता है कि वह एक प्रकार से अप्रासंगिक हो जाता है।शक्तिशाली लोग धन और राजनीतिक ताकत के बल पर कानून को अपने पक्ष में मोड़कर सजा पाने से साफ बचकर निकल जाते हैं और बेकसूर लोग जिंदगी भर बेवजह सजा भोगते रहते हैं।इसका सबसे ज्यादा खामियाजा निरीह बच्चों और महिलाओं को भुगतना पड़ता है। महाराष्ट्र,राजस्थान,गुजरात,बिहार, मध्यप्रदेश सांप्रदायिक हिंसा के केंद्र रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को हिंसा के इस षड्यंत्रकारी अर्थशास्त्र को समझकर उसके अनुरूप कदम उठाने होंगे। विभिन्न वर्गों और समुदायों के बीच पैदा की जा रही नफरत की दीवार को ढहाना होगा।सदभाव और विश्वास की शक्ति को मजबूत करना होगा। पीड़ित लोगों के जख्म पर मरहम लगाना होगा।नफरत फैलाने वाली शक्तियों के खिलाफ सख्ती से पेश आना पड़ेगा।यह समय यह विश्लेषण करने का भी नहीं कि यूपीए सरकार या एनडीए में से किसके समय में कम या ज्यादा सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुई। हालांकि इस बीच येल यूनिवर्सिटी द्वारा की गई एक नई रिसर्च सामने आई है कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार रहते हुए दंगे कम हुए हैं। इस रिसर्च के मुताबिक वर्ष 1962 से 2000 के बीच विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के ज्यादा विधायकों की जीत की वजह से हिंदू-मुस्लिम हिंसा में कमी देखी गई। इस रिसर्च में डू पार्टीज़ मेटर फॉर एथनिक वायलेंस? एविडेंस फ्रोम इंडिया टाइटल से लिखे गए एक लेख में लिखा गया है कि एक अनुमान के मुताबिक एक अकेले कांग्रेस के विधायक के जीतने पर उस विधानसभा क्षेत्र में दंगों की संभावना में 32 प्रतिशत तक की कमी देखी गई। जब कांग्रेस को सभी चुनावों में हार का सामना करना पड़ा उस वक्त दंगों में 10 प्रतिशत की बढ़ोरी देखी गई। यानी 998 दंगों की तुलना में देश में 1,118 दंगे हुए.जबकि दंगों में मरने वालों की संख्या में 46 प्रतिशत की बढ़ोरी हुई. 30,000 की जगह 43,000 लोगों ने दंगो में अपनी जान गंवाई।  
        इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए येल के शोधकर्ताओं ने हिंदू-मुस्लिम दंगों के आंकड़ों का विश्लेषण किया। वर्ष 1962 से 2000 के बीच 17 प्रदेशों के विधानसभा परिणाम और 315 जिलों के डेमोग्राफिक डाटा का प्रयोग किया। ताजा जनगणना के मुताबिक भारत की कुल आबादी में लगभग 80 प्रतिशत हिंदू हैं, जबकि देश में सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय मुस्लिमों की आबादी लगभग 13 प्रतिशत। कांग्रेस के राज में कम सांप्रदायिक हिंसा के लिए इस रिसर्च में मुख्य तौर पर तीन कारणों को दर्शाया है।कांग्रेस ने बड़ी संख्या में मुस्लिम वोटों को कम से कम सुरक्षित कर लिया है। मुस्लिम समुदाय के समर्थन के लिए भी कांग्रेस चुनावी प्रेरक का काम करती है। कांग्रेस पार्टी केंद्र और राज्य दोनों में सालों तक सत्ता में रही है। शायद धार्मिक दंगों के प्रभाव के चलते ही कांग्रेस की गवर्नेंस साख कम भी हुई है। हिंदू प्रत्याशी के ज्यादा समर्थन की वजह से भी हिंदू-मुस्लिम संघर्ष बढ़ सकता है और शायद इस वजह से भी कांग्रेस पार्टी के वोट आधार में कमी हुई है। इस रिसर्च में आगे लिखा गया है कि आंकड़ों से पता चलता है कि सत्ता मे रहते हुए कांग्रेस पार्टी के नेताओं को हिंदू-मुस्लिम हिंसा रोकने के लिए दोनों तरफ से बराबर दवाब झेलना पड़ सकता है। हालांकि शोधकर्ता का कहना है कि ये आंकड़े कुछ लोगों को खासकर कांग्रेस को चौंका सकते हैं क्योंकि लगातार कांग्रेस को देश में कई दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा हैखासकर 1984 के सिक्ख दंगों के लिए। इस रिसर्च की शुरुआत शोधकर्ताओं ने हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का पर्दा उठा कर की है और 'कांग्रेस पार्टी की सत्ता विरोधी लहर के औसत प्रभाव' का विश्लेषण भी किया है।इस अध्ययन में सिर्फ विधायकों का विश्लेषण किया है क्योंकि विधायक स्थानीय राजनीतिक और सामाजिक नेटवर्क में नोडल स्थिति में होते हैं। पांच साल पूरे होने पर जब चुनाव आते हैं तो हर सत्ताधारी पार्टी उन क्षेत्रों को तलाशती है, जिसमें वह नंबर-वन पर रही हो। 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी सांप्रदायिक हिंसा के नतीजों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इसमें उत्तर प्रदेश नंबर-वन पर है। देश में अगर सांप्रदायिक दंगों की बात करें तो यूपी इस वक्त शीर्ष पर है। 2013 से अब तक राज्य में 247 दंगे हो चुके हैं, जबकि कुल 77 लोगों की जानें जा चुकी हैं। गृह मंत्रालय से जारी हुई एक रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में 823 सांप्रदायिक दंगे हुए, जिनमें 177 लोगों की मौत हुई है।इस कालिख भरी तस्वीर को बदलने की जरूरत है,जिसमें सभी पार्टियों को मिलकर एक साथ आना होगा और पार्टी लाइन को छोड़ देश की सदभाव और भाईचारे की सदियों पुरानी समृद्ध और महान परंपरा को सर्वोपरि महत्व देना होगा।इस देश को सांप्रदायिकता की आग में जलाते रहे तो हम सर्वहितों और देश के गौरवशाली गंगा-जमुनी इतिहास पर ही कुल्हाड़ी मार लेंगे।सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को अंजाम देने वाले समाज और देश के दुश्मन हैं और सरकारो को इनसे निपटने में किसी प्रकार की रियायत नहीं बरतनी चाहिए चाहे वह किसी भी समुदाय और राजनैतिक पार्टी से संबन्धित क्यों ना हो, यहाँ तक की पुलिस और प्रशासन में बैठे उनके आकाओं को भी इस मामले में पक्षपात करने के दोष के लिए नहीं बख्शा जाना चाहिए। सांप्रदायिक चेहरे समाज के सामने बेनकाब होने चाहिए।  
 –फारूक आफरीदी

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