विलुप्त हो रही सैंकड़ों भाषाएं कौन बचाएगा!
दुनियाभर
में संरक्षण के अभाव और अंग्रेजी के वर्चस्व से सैंकड़ों भाषाएँ समाप्ति के कगार
पर हैं और ऐसे देशों की सूची में भारत में स्थिति सर्वाधिक चिंताजनक है जहां 196
भाषाएँ लुप्त होने को हैं।संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, दुनियाभर में ऐसी सैंकड़ों भाषाएँ हैं
जो विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गईं हैं और भारत के बाद दूसरे नंबर पर
अमेरिका में स्थिति काफी चिंताजनक है जहां 192 भाषाएं दम तोड़ती नजर आ रही हैं।विश्व इकाई द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार,
भाषाएं आधुनिकीकरण के दौर में प्रजातियों
की तरह विलुप्त होती जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार, दुनियाभर में 6900 भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन इनमें से 2500
भाषाओं को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं
की सूची में रखा गया है।रिपोर्ट के अनुसार 2500 भाषाएं ऐसी हैं जो पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी।
अगर संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2001 में किए गए अध्ययन से इसकी तुलना की जाए तो पिछले एक दशक में
बदलाव काफी तेजी से हुआ है। उस समय विलुप्तप्राय: भाषाओं की संख्या मात्र नौ सौ थी लेकिन
यह गंभीर चिंता का विषय है कि तमाम देशों में इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा
रहा है।
भारत
और अमेरिका के बाद इस सूची में इंडोनेशिया का नाम आता है जहाँ 147 भाषाओं का आने वाले दिनों में कोई
नामलेवा नहीं रहेगा।भाषाओं के कमजोर पड़कर दम तोड़ने की स्थिति का अंदाजा इसी बात
से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर में 199 भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों
से भी कम है। इनमें कैरेम भी एक ऐसी ही भाषा है जिसे उक्रेन में मात्र छह लोग
बोलते हैं।ओकलाहामा में विचिता भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग ही
बोलते हैं। इंडोनेशिया में इसी प्रकार लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं। 178
भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले
लोगों की संख्या 150 से
कम है।भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि भाषाएं किसी भी संस्कृति का आईना होती हैं और
एक भाषा की समाप्ति का अर्थ है कि एक पूरी
सभ्यता और संस्कृति का नष्ट होना।दुनियाभर में
भाषाओं की इसी स्थिति के कारण संयुक्त राष्ट्र ने 1990
के दशक में 21 फरवरी
को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी।गौरतलब है कि बांग्लादेश में 1952 में
भाषा को लेकर एक आंदोलन चला था जिसमें हजारों
लोगों ने अपनी जान दे दी
थी। इस आंदोलन के बारे में कहा जाता है कि इसी से
बांग्लादेश की आजादी के आंदोलन की नींव पड़ी थी।वैश्विक स्तर पर पिछले 50 वर्षों में
अंग्रेजी भाषियों के मुक़ाबले हिन्दी भाषियों की संख्या तेजी से बढ़ी है।मगर दुनिया
भर में कमजोर समुदायों की भाषाओं पर विलुप्ति का संकट अधिक गहराया है।पचास वर्ष
पूर्व हिन्दी भाषी 26 करोड़ और अंग्रेजीभाषी 32 करोड़ थे। अब हिन्दी भाषी 42 करोड़
हैं और अंग्रेजी भाषी लोगों की संख्या 48 करोड़ हैं। ये वैश्विक आंकड़े हैं।ताजा
सूचनाओं के अनुसार भारत में 197 भाषाएँ, अमेरिका में 191, ब्राज़ील में 190, इन्डोनेशिया में 146 और चीन में 144
भाषाएं संकटग्रस्त हैं। पीएसएलआई, यूनेस्को के अनुसार देशी भाषाओं पर
गहरा खतरा मंडरा रहा है। हमारे यहां जनजातीय समुदायों की भाषाएं लुप्त हुई हैं, पर अंग्रेजी के वर्चस्व का खतरा अन्य भाषाओं पर भी मंडरा रहा
है। हिंदीभाषियों की संख्या जहां आबादी बढ्ने के कारण बढ़ी है, वहीं अँग्रेजी ज्ञान, रोजगार और इन्टरनेट की भाषा होने के
कारण फल-फूल रही है।
एक भाषाविज्ञानी के अनुमान के अनुसार हर दो सप्ताह में एक
भाषा विलुप्त हो जाती है। भाषा
को बचाने का मतलब है
पृथ्वी के हर मनुष्य को मिले अधिकारों की रक्षा के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों को
अपना समर्थन देना। आज भी हज़ारों आदिवासियों को विकास के नाम पर बेघर किया जा रहा
है। कुछ लोग यह समझते हैं कि भाषाओं को बचाना कोरी भावुकता है जबकि उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि विलुप्त हो रही
भाषाओं में जो ज्ञान संचित है वह आधुनिक विज्ञान की पुस्तकों में भी नहीं मिलेगा।
उदाहरण के लिए, बोलीविया
के कालावाया समुदाय में कुछ परिवार शताब्दियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को एक
गुप्त भाषा में औषधीय पौधों से संबंधित जानकारी प्रदान करते आए हैं। इस परंपरागत
ज्ञान के महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि विभिन्न देशों से अनेक लोग
अपने रोग दूर करने के लिए इस गुप्त भाषा को जानने वाले लोगों के पास आते हैं।
भाषाविद ग्रेगरी एंडरसन जब इस भाषा पर शोध करने के लिए बोलीविया गए थे तब एक दिन उनकी
तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई तो
उनकी जान किसी आधुनिक
दवा से नहीं बल्कि औषधीय चाय से बची थी। प्रकृति के साहचर्य में रहने वाले लोगों
ने हज़ारों सालों में संचित इस ज्ञान को सहेजकर रखा है। विज्ञान के नाम पर
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया है उसका खामियाज़ा आज
सभी को भुगतना पड़ रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उपभोग करने से बेहतर है
कि हम उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल इस तरह करें जिससे प्रकृति पर कोई नकारात्मक
असर नहीं पड़े।
यहां
ज्ञातव्य है कि प्रयोगकर्ताओं
की संख्या के आधार पर 1952 में
हिंदी विश्व में पांचवे स्थान पर थी।वर्ष 1980 के आसपास वह चीनी और अंग्रेजी क़े बाद
तीसरे स्थान पर आई।
वर्ष 1991 की जनगणना में हिंदी
को मातृभाषा घोषित करने वालों की संख्या के आधार पर पाया गया कि यह पूरे विश्व में
अंग्रेजी भाषियों की संख्या से अधिक है। सन् 1998 में यूनेस्को प्रश्नावली को दिए गए जवाब
में भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर
सरन जैन ने ‘संयुक्त
राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएं
एवं हिन्दी’ शीर्षक से जो विस्तृत आलेख भेजा उसके बाद विश्व
स्तर पर यह स्वीकृत हो चुका है कि वाचकों की संख्या के आधार पर चीनी भाषा के बाद
हिन्दी का विश्व में दूसरा स्थान है। सन 1999 में ‘मशीन ट्रांसलेशन समिट' अर्थात् ‘यांत्रिक अनुवाद’ नामक संगोष्ठी में टोकियो विश्वविद्यालय
के प्रो. होजुमि तनाका ने भाषाई आंकड़े पेश करके सिद्ध किया कि विश्व में
चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिंदी का दूसरा और अंग्रेजी तीसरे स्थान पर है, किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र
हिन्दी की अपेक्षा काफी सीमित है।डॉ. जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने अपने भाषा शोध अध्ययन 2005 में हिन्दी वाचकों की संख्या एक अरब दो
करोड़ पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन घोषित की है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या
मात्र नब्बे करोड़ चार लाख छह हजार छह सौ चौदह बताया है। कहना होगा कि हालात नहीं बदले तो इस शताब्दी के अंत तक विश्व की लगभग 7000 भाषाओं में से आधी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी। एक चिंताजनक
तथ्य यह है कि हर दो सप्ताह में संसार की एक भाषा दम तोड़ देती है। हर भाषा में ज्ञान का खज़ाना छिपा है।
जंगली इलाके में केवल दो सौ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में भी पर्यावरण से
संबंधित ऐसी जानकारी होती है जो आधुनिक विज्ञान की भाषा अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध
नहीं है। उदाहरण के लिए, अमेज़न
के जंगलों में रहने वाली वायांपी जनजाति विभिन्न पक्षियों के व्यवहारों से संबंधित
जानकारी गीतों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती है। ऐसे में हज़ारों
सालों में संचित ज्ञान को बचाने के लिए विलुप्त हो रही भाषाओं को बचाना होगा।
-फारूक आफरीदी
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