शनिवार, 6 दिसंबर 2014

राजस्थानी फिल्म उद्योग के अच्छे दिन



राजस्थानी फिल्म उद्योग के अच्छे दिन
        राजस्थानी फिल्म निर्माताओं के लिए वाकई यह एक अच्छी खबर है कि राज्य सरकार ने राजस्थानी फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए अनुदान राशि बढ़ाकर दोगुना कर दी है। वहीं, राजस्थानी फिल्म फेस्टिवल के आयोजन के लिए प्रतिवर्ष पांच लाख रुपए के अनुदान को मंजूरी दी है। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे द्वारा उठाया गया यह कदम वास्तव में स्वागत योग्य है जिसकी राजस्थानी फिल्म उद्योग में सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई है। राज्य सरकार की इस स्वीकृति के बाद यू श्रेणी की राजस्थानी फिल्मों को अनुदान राशि के रूप में पांच लाख रुपए के मुक़ाबले 10 लाख रुपए मिलेंगे। इसके साथ ही यूए श्रेणी की राजस्थानी फिल्मों को भी अब पांच लाख रुपए अनुदान राशि दी जाएगी।यह शुरुआत अच्छी है हालांकि राशि और बढ़ाई जानी चाहिए।

       राजस्थानी फिल्मों का एक समृद्ध इतिहास रहा है। एक जमाना था जब  राजस्थानी फिल्में बॉलीवुड  में बनने वाली फिल्मों से टक्कर की थी। उनमें पटकथा, संवाद, संगीत,अभिनय, केमरा, सम्पादन आदि पर उतनी ही मेहनत की जाती थी जितनी हिन्दी फिल्मों पर होती थी।
       यह जग जाहिर है कि बालीवुड  से लेकर हालीवुड तक और क्षेत्रीय फिल्मों के निर्माण को देखें तो हम पाएंगे कि उन्होने राजस्थान की समृद्ध संस्कृति, इतिहास और कलाओं का उपयोग करते हुए अपने सिनेमा को समृद्ध किया और दर्शक जोड़े हैं जबकि राजस्थानी सिनेमा को शुरू में ही प्रोत्साहन मिल गया होता तो उसका कैनवस हिन्दी फिल्मों के समकक्ष होता या इसके आसपास होता ।
       राजस्थान सरकार ने कभी इधर ध्यान दिया ही नहीं। आज गुजराती, मराठी, बंगाली, भोजपुरी, असमिया फिल्मों ने जो मुकाम बनाया है तो उसके पीछे वहाँ की राज्य सरकारों का बड़ा योगदान रहा है, इसे स्वीकार करना होगाएक राजस्थानी फिल्म टिप्पणीकार के अनुसार पचास से भी अधिक वर्ष हो गये हैं, हिन्दी फिल्म वीर दुर्गादासमें भरत व्यास रचित मुके-लता का गाया पूरा का पूरा राजस्थानी गीत थाने काजळियो बणा लूं...आज भी लोकप्रिय है परन्तु राजस्थानी सिनेमा बाबा रामदेव’, ‘लाज राखो राणी सतीकरमा बाई’ ‘वीर तेजाजी’, ‘नानी बाई को मायरोजैसी धार्मिक फिल्मों औरबाई चाली सासरिये’, ‘ढोला-मरवण, ‘म्हारी प्यारी चनणा’, ‘दादो सा री लाडलीऔर इधर बनी पंछिड़ो’ ‘भोभरजैसी कुछेक गिनाने लायक फिल्मों से आगे नहीं बढ़ सका है। कुछ साहसी फ़िल्मकार बड़े बजट की राजस्थानी फिल्में बना रहे हैं लेकिन शासन का सहयोग नहीं मिल पाता वरना अब तकनीक, कथा, संवाद ,अभिनय, गीत- संगीत किसी भी दृष्टि से हमारा सिनेमा पीछे नहीं है ।

 

       हाल ही  दो करोड़ दस लाख की लागत के साथ बड़े बजट की एक राजस्थानी फिल्म बनाई गयी जो राजस्थानी फिल्मों में सबसे ज्यादा बजट की है।  इसके फ़िल्मकार निशांत नब्बे के दशक में निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक रह चुके हैं। राजस्थानी सिनेमा इंडस्ट्री को एक हिट फिल्म की जरूरत है।पहले भी राजस्थान ने कई हिट फिल्में दी हैं। अब अगर सरकार सहयोग और प्रोत्साहन का हाथ बढ़ाएगी तो इस इंडस्ट्री के अच्छे दिन शुरू हो जाएंगे। अगर कोई अच्छी फिल्म बनेगी तो लोग जरूर देखने आएंगे ।
       आजादी से पहले 1942 में जिस भाषा में महिपाल, सुनयना जैसे ख्यात कलाकारों को लेकर पहली फिल्म निजराणोका आगाज हो गया था, वह सिनेमा आज भी  विकास की प्रतीक्षा कर रहा है। जिस सिनेमा में कभी रफी ने आ बाबा सा री लाडली...जैसा मधुर गीत गाया, जहां जय संतोषी मांसमान ही सुपातर बीनणीजैसी सर्वाधिक व्यवसाय करने वाली फिल्म बनी, वह 69 वर्षों के सफर में भी पहचान बनाने को संघर्षरत है। भले दर्शकों केहीं होने की बात कही जाये परन्तु ऐसा पूर्ण सत्य नहीं है। बहरहाल, राजस्थानी फिल्म महोत्सव एक सार्थक पहल है। इसलिये कि इसके अंतर्गत दिखाई फिल्मों और आयोजित विभिन्न विचार सत्रों से चिंतन और समझ के नये द्वार खुले हैं । जब राजस्थानी लोकगीतों का संस्कृति के मूल सरोकारों के साथ तकनीकी दृष्टि से के.सी. मालू जैसे उसका सुदूर देशों तक व्यापक प्रसार कर सकते हैं तो इस बात में कोई संदेह नहीं कि राजस्थान की संस्कृति और यहां की भाषा का सिनेमा सबल संप्रेषण का माध्यम नहीं बन  सकता। हमारे सामने उदाहरण है कि दक्षिण सिनेमा ने समाज को संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखा है। किसी भी भाषा में यह जरूरी नहीं है कि जो फिल्में बने वह सबकी सब महान या कालजयी हों ही परन्तु जो फिल्में बनें उनमें कला की दृष्टि और तकनीक सुदृढ़ हो। यह सिनेमा ही है जो बड़े शहरों से लेकर छोटे से छोटे  गांवों तक पहुंच सकता है।

        राजस्थानी फिल्मकार भी अब हाईटेक होने लगे हैं। वे अपनी फिल्मों का प्रमोशन यू ट्यूब और फेसबुक जैसी साइट्स के साथ ही टीवी चैनल्स पर कर रहे हैं। यही कारण है कि अब राजस्थानी फिल्मों के नाम भी लोगों की जुबान पर चढऩे लगे हैं।अब तक समाचार पत्र टीवी चैनल्स राजस्थानी फिल्मों व उनके कलाकारों को अनदेखा करते रहे हैं । अब फ़िल्मकार सोशल साइट्स पर भी लोगों से जुड़ रहे हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हो रहा है कि शहरी लोगों को भी उनकी फिल्मों के बारे में पता चल रहा है। उनके कलाकारों के बारे में जानकारी मिल रही है।

अपने ही घर में अब तक बेगानी रही राजस्थानी फिल्में अन्य राज्यों की तुलना में बहुत पीछे, 68 साल के सफर में बस सौ का आंकड़ा पार कर पाई हैं।आज देश के हर हिस्से में श्रेत्रीय भाषाओं की अपनी एक अलग पहचान है। तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलगु, भोजपुरी गुजराती हो या फिर मराठी हर भाषा की  फिल्में खूब बन और चल रही हैं। हमारे प्रदेश के कलाकार टीवी की दुनिया में धूम मचाने के साथ ही बॉलीवुड व हॉलीवुड में भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। यहां तक कि हमारे परिवेश और हमारी भाषा को आधार बनाकर टीवी चैनल भी खूब वाहवाही लूट रहे हैं, पर हम सांस्कृतिक रूप से इतने समृद्ध होने के बावजूद पहचान नहीं बना पा रहे हैं।जाहिर है वहां की सरकारें श्रेत्रीय  भाषा की फिल्मों को पूरा संरक्षण देती है । एक फिल्म निर्माता के अनुसार हर क्षेत्रीय भाषा की फिल्म को 5 से लेकर 25 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है। (यह राज्यवार अलग-अलग है)  क्षेत्रीय भाषा की फिल्म के लिए राज्य में किसी भी लोकेशन पर शूटिंग करने की छूट दी जाती है। हर सिनेमा हॉल्स में एक साल में कम से कम 30 दिन श्रेत्रीय  भाषा की फिल्म दिखाना अनिवार्य है।इस सरकारी प्रोत्साहन के अलावा क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का भी पूरा सहयोग मिलता है। इसके विपरीत राज्य सरकार की ओर से किसी भी तरह की कोई सहायता नहीं मिलती। लोकशन का भी वही किराया लिया जाता है जो बॉलीवुड निर्माताओं से लिया जाता है। सिनेमा हाल वाले फिल्म लगाने को तैयार नहीं होते। तैयार भी होते हैं तो वो भी दुगुने भाड़े पर। अगर सिनेमा हॉल का रोजाना का एवरेज कलेक्शन 3000 रुपए है तो वह राजस्थानी फिल्म के निर्माता से 5000/ से 6000 रुपए मांगेगा। ऐसे में फिल्म के हिट होने के बाद भी निर्माता घाटे में ही रहता है, क्योंकि हिट फिल्म में भी रोजाना का एवरेज कलेक्शन मुश्किल से 4000 से 5000  के आसपास आता है। बैनेर-पोस्टर व प्रचार का खर्च भी इसी में से निकालना पड़ता है।

अब जयपुर और जोधपुर में फिल्मसिटी के निर्माण को भी गतिशील किया जाना चाहिए ताकि यहाँ की प्रतिभाओं को  समुचित अवसर मिले और सरकार के खजाने में  आमदनी बढ़ सके। सरकार का यह भी प्रयास रहे कि राजस्थानी फिल्म समारोह व्यापक रूप ले। इससे राजस्थानी भाषा,साहित्य और संस्कृति का भी सम्मान बढ़ेगा ।   

--फारूक आफरीदी   


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