राजस्थानी फिल्म उद्योग के अच्छे दिन
राजस्थानी फिल्म निर्माताओं के लिए वाकई यह एक अच्छी खबर है कि राज्य सरकार ने राजस्थानी फिल्मों
को बढ़ावा देने के लिए अनुदान राशि बढ़ाकर दोगुना कर
दी है। वहीं, राजस्थानी फिल्म फेस्टिवल के आयोजन के लिए प्रतिवर्ष पांच लाख
रुपए के अनुदान को मंजूरी दी है। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे द्वारा उठाया गया यह कदम वास्तव
में स्वागत योग्य है जिसकी राजस्थानी फिल्म उद्योग में सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई
है। राज्य सरकार
की इस स्वीकृति के बाद यू श्रेणी की राजस्थानी फिल्मों को अनुदान राशि के रूप में पांच लाख रुपए के मुक़ाबले 10 लाख रुपए मिलेंगे। इसके साथ ही यूए श्रेणी की राजस्थानी फिल्मों को भी अब पांच
लाख रुपए अनुदान राशि दी जाएगी।यह शुरुआत अच्छी है हालांकि राशि और बढ़ाई जानी चाहिए।
राजस्थानी फिल्मों का एक
समृद्ध इतिहास रहा है। एक जमाना था जब
राजस्थानी फिल्में बॉलीवुड में
बनने वाली फिल्मों से टक्कर की थी। उनमें पटकथा, संवाद, संगीत,अभिनय, केमरा, सम्पादन आदि पर
उतनी ही मेहनत की जाती थी जितनी हिन्दी फिल्मों पर होती थी।
यह जग जाहिर है कि
बालीवुड से लेकर हालीवुड तक और क्षेत्रीय
फिल्मों के निर्माण को देखें तो हम पाएंगे कि उन्होने राजस्थान की समृद्ध संस्कृति, इतिहास और कलाओं का उपयोग करते हुए अपने सिनेमा को समृद्ध किया और दर्शक जोड़े हैं जबकि राजस्थानी सिनेमा को शुरू में ही प्रोत्साहन मिल गया
होता तो उसका कैनवस हिन्दी फिल्मों के समकक्ष होता या
इसके आसपास होता ।
राजस्थान सरकार ने कभी इधर ध्यान
दिया ही नहीं। आज गुजराती, मराठी, बंगाली, भोजपुरी, असमिया फिल्मों ने जो मुकाम बनाया है तो उसके पीछे वहाँ की राज्य सरकारों
का बड़ा योगदान रहा है, इसे स्वीकार करना
होगा। एक राजस्थानी फिल्म टिप्पणीकार के
अनुसार पचास से भी
अधिक वर्ष हो गये हैं, हिन्दी फिल्म ‘वीर दुर्गादास’ में भरत व्यास रचित मुकेश-लता का गाया पूरा का पूरा राजस्थानी गीत ‘थाने काजळियो बणा लूं...’ आज भी लोकप्रिय है परन्तु
राजस्थानी सिनेमा ‘बाबा रामदेव’, ‘लाज राखो राणी सती’ करमा बाई’ ‘वीर तेजाजी’, ‘नानी बाई को मायरो’ जैसी धार्मिक फिल्मों और ‘बाई चाली
सासरिये’, ‘ढोला-मरवण, ‘म्हारी प्यारी चनणा’, ‘दादो सा री लाडली’ और इधर बनी ‘पंछिड़ो’ ‘भोभर’ जैसी कुछेक गिनाने लायक फिल्मों से
आगे नहीं बढ़ सका है। कुछ साहसी फ़िल्मकार बड़े बजट की
राजस्थानी फिल्में बना रहे हैं लेकिन शासन का सहयोग नहीं मिल पाता वरना अब तकनीक, कथा, संवाद ,अभिनय, गीत- संगीत
किसी भी दृष्टि से हमारा सिनेमा पीछे नहीं है ।
हाल ही दो करोड़ दस लाख की लागत के साथ बड़े बजट की एक राजस्थानी फिल्म बनाई गयी जो राजस्थानी फिल्मों में सबसे
ज्यादा बजट की है। इसके फ़िल्मकार निशांत नब्बे के दशक में निर्देशक
ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक रह चुके हैं। राजस्थानी
सिनेमा इंडस्ट्री को एक हिट फिल्म की जरूरत है।पहले भी राजस्थान ने कई
हिट फिल्में दी हैं। अब अगर सरकार सहयोग और प्रोत्साहन का हाथ बढ़ाएगी तो इस इंडस्ट्री के अच्छे दिन शुरू हो जाएंगे।
अगर कोई अच्छी फिल्म बनेगी तो लोग जरूर देखने आएंगे ।
आजादी से पहले 1942 में जिस
भाषा में महिपाल, सुनयना जैसे ख्यात
कलाकारों को लेकर पहली फिल्म ‘निजराणो’ का आगाज हो
गया था, वह सिनेमा आज भी विकास की प्रतीक्षा कर रहा है। जिस
सिनेमा में कभी रफी ने ‘आ बाबा सा री लाडली...’ जैसा मधुर
गीत गाया, जहां ‘जय संतोषी
मां’ समान ही ‘सुपातर बीनणी’ जैसी
सर्वाधिक व्यवसाय करने वाली फिल्म बनी, वह 69 वर्षों के
सफर में भी पहचान बनाने को संघर्षरत है। भले दर्शकों के नहीं होने
की बात कही जाये परन्तु ऐसा पूर्ण सत्य नहीं है। बहरहाल, राजस्थानी
फिल्म महोत्सव एक सार्थक पहल है। इसलिये कि इसके अंतर्गत दिखाई
फिल्मों और आयोजित विभिन्न विचार सत्रों से चिंतन और समझ के नये द्वार खुले हैं । जब राजस्थानी
लोकगीतों का संस्कृति के मूल सरोकारों के साथ तकनीकी दृष्टि से के.सी. मालू
जैसे उसका सुदूर देशों तक व्यापक प्रसार कर
सकते हैं तो इस बात में कोई संदेह नहीं कि राजस्थान की
संस्कृति और यहां की भाषा का सिनेमा सबल संप्रेषण का माध्यम नहीं बन सकता। हमारे सामने उदाहरण है कि दक्षिण
सिनेमा ने समाज को संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखा है। किसी भी
भाषा में यह जरूरी नहीं है कि जो फिल्में बने वह सबकी सब महान या कालजयी हों
ही परन्तु जो फिल्में बनें उनमें कला की दृष्टि और तकनीक सुदृढ़ हो। यह
सिनेमा ही है जो बड़े शहरों से लेकर छोटे से छोटे गांवों तक पहुंच सकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें