रविवार, 21 दिसंबर 2014

जन प्रतिनिधियों के आचरण पर उठते सवाल



संपादकीय

जन प्रतिनिधियों के आचरण पर उठते सवाल

जादी के सड़सठ सालों के बाद भी देश के जनप्रतिनिधियों के आचरण को लेकर सवाल उठना बहुत चिंताजनक है। यह चिन्ता तब और भी बढ़ जाती है जब लोकतन्त्र के मंदिर संसद एवं विधानसभाओं के लिए चुने जाने वाले जनप्रतिनिधियों के दुराचरणों के दृश्य देखने को मिलते हैं। कभी-कभी स्थितियां बहुत ही शर्मनाक रूप ले लेती हैं। ऐसे में जन प्रतिनिधियों पर तरस ही नहीं आता बल्कि जन आक्रोश सामने आता है। हाल ही प्रदेश में एक सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक ने शर्मसार करने वाला जो व्यवहार किया उसकी सर्वत्र आलोचना हुई है और पार्टी ने अपनी छवि बिगड़ने के भय से उसके विरुद्ध कार्यवाही भी की।  हालांकि पार्टी हाइकमान ने इसमें लीपापोती को नापसंद करने की बातें भी कही जा रही है । इसके साथ ही इन्हीं दिनों एक मंत्री दारा भी कुछ ऐसा ही व्यवहार करने और एक अन्य विधायक द्वारा अपने मतदाताओं को धमकाने के समाचार भी प्रकाश में आए हैं। एक समय में इसी पार्टी के वरिष्ठ मंत्री द्वारा सचिवालय कक्ष में एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के साथ दुर्व्यवहार करने की जानकारी ने भी पार्टी की किरकिरी कराई थी।  
देश में लोकतंत्र की स्थापना के समय किसी ने शायद ही यह कल्पना होगी कि लोकतंत्र में हमारे अपने जनप्रतिधियों और उनके परिवार के सदस्यों का आचरण राजा-महाराजाओं और शहंशाहों से भी ज्यादा विवादित हो जायेगा।सत्तारूढ़ दलों में यह प्रवृति  कुछ ज्यादा ही देखने में आती है। ऐसे भी अनेक हादसे हुए हैं जब मंत्रियों या समकक्ष नेताओं के स्टाफ और ड्राइवरों के साथ स्वयं अथवा उनके परिजनों द्वारा बदतमीजी का व्यवहार किया गया।  जनता के प्रतिनिधि या जनसेवक कहलाने वाले हमारे जननेता जनता और सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ गुलामों और बंधुआ मजदूरों जैसा बदतर व्यवहार करते रहे हैं। सत्ता के मद में माँ-बहन तक की गालियां देना इनका शगल हो गया है।
जनप्रतिनिधियों का निर्वाचन जन सेवा के लिए किया जाता है लेकिन जनप्रतिनिधि अपने आपको एक विशेष उच्च वर्ग का समझने लगते हैं । ये आचरण करते समय वे ये भी भूल जाते हैं कि उन्हें हर महीने जो बड़े वेतन भत्ते और आवास, परिवहन, फोन- मोबाइल, कंप्यूटर, पीए आदि की जो भारी भरकम सुविधाएं मिल रही हैं, उसकी सारी की सारी राशि आम लोगों के खून-पसीने की कमाई से करों के रूप में वसूली जाती है। ऐसे में जनता के पाई-पाई का हिसाब रखने की ज़िम्मेदारी बनती है। साथ ही इन जन प्रतिनिधियों के आचरण पर अंकुश और व्यवहार के भौंडे प्रदर्शन पर अंकुश जरूरी है।दलीय समर्थन के बल पर अपनी  वाणी, व्यवहार और बाहुबल का बेजा इस्तेमाल किसी भी सूरत में स्वीकार्य न हो और ना ही उसे प्रोत्साहन दिया जाए। अक्सर ऐसा देखा जाता है जब घटनायें सामने आती हैं तो उनके समर्थन में पार्टी या पार्टी के अनेक लोग एक साथ खड़े दिखाई देते हैं, जो एक प्रकार से अनैतिकता को बढ़ावा जैसा होता है। प्रजातन्त्र में मीडिया की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया के कारण ही अधिकांश बड़े मामले प्रकाश में आ पाते हैं वरना ऐसी सामंतशाही के प्रदर्शन का पता ही नहीं चल पाता। कभी कभी मीडिया भी ट्रायल शुरू कर देता है और सही–गलत का निर्णय सुना देता है, जो गलत है। मीडिया को अपनी भूमिका बताने की जरूरत नहीं, वह अपनी मर्यादा भली-भांति जानता है।
जनप्रतिनिधियों के व्यवहार पर भी उनका संयम आजकल रीतने लगा है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के एक विधान परिषद सदस्य की चिट्ठी मीडिया में सामने आई जिसने अपने भतीजे की गाड़ी को सड़कों पर बेखौफ दौड़ने देने का हुकम जारी किया ताकि टोलकर्मी, पुलिस और आरटीओ भी रोकने का साहस न कर सकें । इसी तरह विगत दिनों फैजाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग स्थित टोल प्लाजा पर एक दबंग पार्टी नेता के लोगों ने टैक्स मांगने पर टोलकर्मियों को किस बेरहमी से पीटा, यह टीवी और अखबारों में सबने देखा-पढ़ा, लेकिन हुआ कुछ नहीं । ऐसे में उन लोगों का मनोबल और बढ़ जाता है। सरकारें अपने काम-काज से ही लोगों को संदेश देती हैं लेकिन दोषियों पर कार्रवाई न होने का मतलब साफ है कि ऐसे कृत्य करने वाले नेताओं का कुछ नहीं हो सकता। जनप्रतिनिधि कानून व्यवस्था का उचित सम्मान करते दिखेंगे तो आम लोग भी उनका अनुसरण करेंगे लेकिन यदि सरकार के लोग ही मर्यादा का पालन करते नहीं दिखाई देते तो आम जन में उसकी विपरीत प्रतिक्रिया होनी ही है। देखने में आया है ऐसे मामलों में  कर्मचारी और अधिकारी स्तर पर तो तेजी से कार्यवाही हो जाती है लेकिन जन प्रतिनिधियों के मामलों में आनाकानी ही बरती जाती है । इसका एक ताजा उदाहरण यह है कि बिहार के  मधेपुरा जिले के मुरहो पीएचसी में लेखापाल के रूप में पदस्थापित कर्मचारी को नौकरी से हाथ धोना पड़ गया। उस पर ताजा आरोप बिजली विभाग के कनिष्ठ अभियंता और कार्यपालक अभियंता को डराने-धमकाने का आरोप था जो जिलाधिकारी के द्वारा कराये गए जांच में साबित पाए गए। ऐसे उदाहरण हर राज्य में मिल जाएंगे।
जनप्रतिनिधियों के दुराचरण के कारण भारतीय लोकतंत्र के प्रति लोगों की बढ़ती अरुचि बढ़ती जा रही है जो,चिंताजनक है। परोक्ष रूप से इसके लिए जनप्रतिनिधियों का आचरण ही जिम्मेदार है। यह आत्म विश्लेषण का समय है कि आखिर हम अपने आचरण से अपने क्षेत्र के मतदाताओं समेत जनता को क्या संदेश दे रहे हैं। जनप्रतिनिधियों को अपने कर्तव्य का निर्वहन  ईमानदारी और मर्यादा के साथ करना ही चाहिए। राजनीति सेवा का एक माध्यम है, लेकिन हाल के वर्षों में सेवा के स्थान पर यह शक्ति के बेजा प्रदर्शन का माध्यम बन रहा है जिससे जन प्रतिनिधियों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन देखा जा सकता है।
दूसरी ओर देश में कुछ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को इस बात का  भ्रम हो गया है कि कोई मुद्दा विशेष प्रभावी ढंग से उठाने के लिए सदन की कार्यवाही को बाधित करना आवश्यक है।कार्यवाही को बाधित करते समय कई बार वे मर्यादा लांघ जाते हैं। इस प्रवृत्ति से वे अपने देश से छल कर रहे होते हैं जिसने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए अपना जनप्रतिनिधि चुना है। जनप्रतिनिधियों को सिर्फ इस बात की चिंता करना चाहिए कि वह समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति की तकलीफों और समस्याओं को कैसे दूर सकते हैं। देखने में आया है कि राजनैतिक दल अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए ऐसे आपराधिक प्रवृति वाले दागी लोगों को टिकट दे देते हैं जो बाहुबल और धनबल पर जीत सकने की क्षमता रखते हैं,जिनका आम लोगों से कोई वास्ता नहीं होता। लोकसभा और विधानसभाओं में दागी लोगों की भागीदारी भी चिंताजनक है। ऐसे सदस्यों से लोकतांत्रिक और परिपक्व राजनीतिक व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। समय रहते सभी राजनीतिक दलों को इस पर देश हित में गंभीर चिंतन कर फैसले लेने होंगे।
 पिछले कुछ वर्षों से संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधियों के हंगामा खड़ा करने, सदन की कार्यवाही में बाधित करने या फिर अपनी हरकतों से सदन की मर्यादा को कलंकित करने की घटनाएं बढ़ी हैं।दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि संसद या अमर्यादित आचरण करने वाले सांसदों-विधायकों के खिलाफ न तो उनकी पार्टियां कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करती हैं और न सदन की तरफ से कोई सख्त कदम उठाए जाते हैं। जनप्रतिनिधियों का आचरण अपनी जनता के बीच एक नजीर होना चाहिए।जनप्रतिनिधियों के आचरण में शालीनता, सहिष्णुता, विनम्रता होनी ही चाहिए, लेकिन विडंबना है कि खुद हमारे नुमाइंदों को इस बात की फिक्र नहीं है कि उनके बर्ताव से जनता के बीच क्या संदेश जा रहा है। -फारूक आफरीदी

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