भारत के
हर गाँव को जयापुर बनाना होगा
प्रधानमंत्री ने ‘सांसद आदर्श गाँव योजना’ के तहत अपने संसदीय क्षेत्र
वाराणसी के एक गाँव जयापुर को गोद लेते हुए देश के समस्त सांसदों से कहा है कि वे
अपने संसदीय क्षेत्र में एक गाँव गोद लें और उसे आदर्श गाँव बनाएँ। प्रधानमंत्री
मोदी ने हालांकि स्वयं जो गाँव गोद लिया है वह आरएसएस द्वारा पहले से ही गोद लिया
हुआ बताया जाता है। प्रधानमंत्री अगर किसी दलित या अल्पसंख्यक बहुल गाँव को गोद
लेते तो एक नया संदेश जाता लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ । बहरहाल,यह
कहा जा सकता है कि आजादी के इन 68 सालों में ‘सांसद आदर्श
गाँव योजना’ जैसे प्रयोग पहले भी कई बार हुए हैं।
राष्ट्रपिता के नाम ‘गांधी ग्राम योजना’ और अन्य महापुरुषों के नाम तथा ‘निर्मल ग्राम योजना’ जैसी योजनाएं समय-समय पर बनी और उनका क्या हश्र हुआ, उससे पूरा देश परिचित है । लोकतन्त्र में हर पाँच साल में सरकारें बदल
जाती हैं,नई पार्टी और नए नेता आ जाते हैं और वे अपने हिसाब
से फिर उन्हीं योजनाओं को नया नाम दे देते हैं जो पहले से ही चल रही होती हैं। थोड़े
से हेर-फेर के साथ काम कुल मिलाकर एक जैसा ही होता है । अफसरशाही ही इन कामों को अंजाम
देती है जो कभी बदलती नहीं।
आदर्श गाँव की परिभाषा क्या हो ? हमारी दृष्टि में ऐसा गाँव ही आदर्श हो सकता है जो स्वच्छ हो, जहां पीने का शुद्ध पानी, चिकित्सा और स्वास्थ्य से
जुड़ी सारी सुविधाएं जैसे प्रसूति, महिला एवं बाल स्वास्थ्य
से जुड़ी सुविधाएं और औषधियों का समुचित प्रबंध, प्राथमिक, माध्यमिक स्कूल,10 प्लस टू तक शिक्षा और सभी विषयों
के अध्यापक, खेल का मैदान ग्राम पंचायत भवन, सामुदायिक भवन, सूचना केंद्र,
वाचनालय,आंगनवाड़ी,गोचर भूमि, प्रत्येक घर में शौचालय, स्कूलों और सार्वजनिक
स्थलों पर (पानी के प्रबंध सहित) महिला और पुरुषों के लिए सुविधाएं, जल-मल निकासी की समुचित व्यवस्था, एक गाँव को दूसरे
गाँव तक जोड़ने वाली सड़क, बेहतर परिवहन सुविधा, रसोई गैस की पर्याप्त आपूर्ति, डाकघर,पुलिस चौकी,ग्राम न्यायालय, बिजली
की निर्बाध आपूर्ति, फोन,मोबाईल और
कंप्यूटर संचालन के लिए अच्छा नेटवर्क की सुविधाएँ मिले।कोई व्यक्ति निरक्षर ना
हो। ये सभी आधारभूत सुविधाएं हैं जो प्रत्येक ग्राम को मिलनी चाहिए। यह अलग बात है
कि आजादी के इन 68 सालों में भी लोकतान्त्रिक सरकारें ये सुविधाएं नहीं जुटा पाईं और
सुविधाओं का सारा लाभ शहरों तक ही सीमित होकर रह गया । ग्रामीण नेतृत्व कभी उभर ही
नहीं पाया, भले ही हम यह कहते आए हैं कि असली भारत गांवों में
बसता है । गांवों का उपयोग वोट लेने के लिए ही अधिक किया गया और यही स्थिति अभी भी
बनी हुई है। गांवों की मूल चिंता से हमारे जनप्रतिनिधि अभी भी कोसों दूर है। इसे
दुर्भाग्यपूर्णही कहा जाएगा ।
देश के सभी गांवों और शहरों के योजनाबद्ध
विकास के लिए हर दस वर्ष में जनगणना होती है । भारत में जनगणना 1872 से की जाती रही
है। जनगणना-2011 के
तहत भारत की 15वीं राष्ट्रीय जनगणना 1 मई 2010 को
आरम्भ हुई थी। जनगणना को दो चरणों में पूरा किया गया। अन्तिम जारी प्रतिवेदन के अनुसार, भारत की जनसंख्या 2001-2011
दशक के दौरान 18,14,55,986 से बढ़कर 1,21,01,93,422 हो गई है ।
इस दौरान देश की साक्षरता दर भी 64.83% से बढ़कर 74.04%
हो गई है। 2011 की जनगणना के लिए कुल 27 लाख अधिकारियों ने 7000 नगरों/कस्बों और 6 लाख गाँवों के परिवारों तक
पहुँचकर आंकड़े जुटाए
जिसमें लोगों को लिंग, धर्म, शिक्षा-स्तर और व्यवसाय इत्यादि में
वर्गीकृत किया गया। इस काम
पर कुल 22 अरब रुपए खर्च किए गए। प्रति
दस वर्षों में होनी वाली इस जनगणना
में देश के विशाल आकार और सांस्कृतिक विविधता के अतिरिक्त भी बहुत सी चुनौतियाँ होती हैं
।
कहने को योजना आयोग और ग्रामीण विकास
मंत्रालय भी है लेकिन सभी जानते हैं कि आज भी गांवों की दशा क्या है और अगर लोकसभा
के 543 और राज्यसभा के 241 सांसद यानी कुल मिलकर 784 अपने कार्यकाल में एक-एक गाँव
ही गोद लेते रहेंगे तो देश के 6 लाख से अधिक गांवों के विकास में कितने बरस लगेंगे, इसकी परिकल्पना की जा सकती है।यह तो गनीमत है कि प्रधानमंत्री ने पहले ही
साफ कर दिया कि सांसद अपने गाँव और अपने ससुराल के गाँव का चयन नहीं करेंगे ।
प्रधानमंत्री सांसदों के मानस को पहले ही भाँप गए थे कि अगर उन्होंने ऐसी बंदिश
नहीं लगाई तो हमारे माननीय सांसद ‘चेरिटी बिगेन्स फ़्राम होम’ उक्ति को चरितार्थ किए बिना नहीं मानेंगे ।
प्रधानमंत्री जी को यह बात तो स्वीकार
करनी पड़ेगी कि अभी भी देश के लाखों गाँव ऐसे हैं जहां माताओं के लिए प्रसव की
समुचित व्यवस्था नहीं होने से जच्चा-बच्चे की जान चली जाती है,संपर्क सड़कों का अभाव है, स्वास्थ्य केन्द्रों में
पर्याप्त चिकित्सक और स्कूलों में पर्याप्त अध्यापकों का अभाव है। विशेषज्ञ
चिकित्सकों की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। गांवों में स्त्रियाँ आज भी स्वच्छ
पानी के लिए दूर तक पैदल चलकर प्रबंध करती हैं, गांवों में
रोजगार के अवसर नहीं होने से ग्रामीण स्त्री-पुरुष शहरों की ओर पलायन करते हैं।
गांवों में बैंक तो दूर की बात, डाकघर तक नहीं है।वर्तमान
डाकघर भी बंद होने के कगार पर हैं। ग्राम पंचायत की बैठकें ताकतवर सरपंचों के घरों
के बंद कमरों होती है और ग्रामीणों को उसकी हवा भी नहीं लगती। ग्रामीण विकास के
नाम पर आने वाले धन से जनप्रतिनिधि धनाढ्य होते जा रहे हैं। सूचना के अधिकार का
इस्तेमाल नगण्य है उसमें और बाहुबल और बहानेबाजी का वर्चस्व है । आम आदमी के हितों
की किसी को परवाह नहीं, ग्रामसेवक और सरपंच की मिलीभगत का
बोलबाला है। इन सब हालातों को बदले बिना ग्राम विकास का सपना अधूरा है और गांधीजी की
कल्पना से तो कोसों दूर है। मात्र एक-एक गाँव को गोद लेकर विकसित करने की योजना से
अन्य गावों में असंतोष ही पैदा होगा। इससे तो अच्छा यह होता कि जिस तरह हर गाँव
में शौचालयों के निर्माण की योजना बनाई गयी उसी तरह सड़क,
स्कूल, स्वास्थ्य केन्द्र और बिजली-पानी जैसी मूलभूत जरूरतों
के लिए धन की पर्याप्त व्यवस्था करके सांसदों को उसकी पुख्ता मोनिटरिंग की
जिम्मेदारी सौंपी जाती तो अगले पाँच वर्षों में गांवों का नक्शा कुछ और ही होता।
इसके बाद अन्य प्राथमिकताओं पर काम को आगे बढ़ाया जा सकता है ।
देश के हर गाँव का एक समृद्ध सांस्कृतिक
इतिहास है, उनके साथ अनेक गौरव गाथाएँ जुड़ी हुई हैं। हमारे गांवों में अनेक प्राचीन,
आध्यात्मिक और पुरा महत्व के स्थल मौजूद हैं और राजस्थान का गांवों का तो इतिहास
शक्ति और भक्ति का इतिहास रहा है। यहाँ सांप्रदायिक एकता,
सदभाव, भाईचारा का गौरवशाली इतिहास है। इसे बनाए रखने के लिए
विशेष कदम उठाने की जरूरत है । इस समृद्ध इतिहास का सही-सही लेखन करने की जरूरत है
ताकि सभी समुदाय, वर्गों, धर्मावलम्बी
नागरिकों में सदियों से चली आ रही भाईचारे की परंपरा और मजबूत हो और सांप्रदायिक
शक्तियाँ मुंह ना उठा सकें। ग्रामीण नेतृत्व में आ रही बुराइयों और द्वेष के जो
बीज सत्ता के लिए विकसित हो रहे हैं उन्हें रचनात्मक दिशा भी देनी होगी । ग्रामीण
विकास के नजरिए को नई दिशा देनी होगी तभी हम सही अर्थों में आदर्श गाँव बनाने में
सफल होंगे।
-फारूक
आफरीदी
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